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इसलिए 'चेष्टाएं भोगों से
में ऊँचा
आत्म
आसन,
ही एक के राज्य
मेरा
न द्वारा
द तृण याँ भी
बनो ।
उसमें
का
ना का
ही हो
मुक्ति
o.
सिद्धत्वोपलब्धि ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण
वस्तुतः न कर्मकांड से न प्रजा - संतति से तथा न धन-संपत्ति से अमृतत्त्व की प्राप्ति होती है । ऐसा होने की न कोई आशा है और न कोई संभावना है।
काम्य-कामनायुक्त या सकाम श्रीत एवं स्मार्त स्मृतियों में निरूपित कर्मों का परित्याग कर, सन्यास आश्रम को स्वीकार कर महात्मा, महापुरुष मोक्ष को प्राप्त हुए हैं। इसलिए विद्वान् - विवेकशील, ज्ञानी पुरुष समस्त बाह्य भोगों का, सुखों का स्पृहा का, आकांक्षा का परित्याग कर महान् ज्ञानी गुरु की शरण में जाए और उन द्वारा प्रदत्त उपदेश में चित्त को समाहित कर मुक्ति एवं सिद्धि की दिशा में प्रयत्नशील बने।
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सम्यक् दर्शन में निष्ठा युक्त होता हुआ योगारूढ़ अध्यात्म योग में सन्निविष्ठ वन कर | साधक, संसार- सागर में डूबती हुई अपनी आत्मा का उद्धार करे । '
मुक्ति हेतु शिष्य की पृच्छा
शिष्य अपने महान ज्ञानी गुरुवर्य से जिज्ञासा पूर्वक पूछता है- समस्त लोगों द्वारा पूजनीय, सबके हितकारक, कल्याणकारी गुरुदेव ! मैं आपको नमन करता हूँ। मैं संसार सागर में डूब रहा हूँ। आप अपनी आर्जव युक्त, अत्यंत कारुण्य रूपी अमृत से परिपूर्ण दृष्टि द्वारा मेरा उद्धार करें।
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जिससे छूट पाना अत्यंत कठिन है, उस संसार रूपी दावानल से जलता हुआ तथा दुर्भाग्यरूपी | प्रबल प्रभंजन तूफान से अत्यंत प्रकंपित एवं भयभ्रांत हुआ, मैं आपकी शरण में हूँ। मेरी आप रक्षा करें, क्योंकि इस समय में और किसी को शरण्य- शरण देने वाला नहीं देखता ।
गुरु द्वारा समाधान
मा भैष्ट विस्तव नास्त्यपायः संसारसिन्धोस्तरणेऽस्त्युपायः । येनैव याता यतयोऽस्य पारं तमेव मार्गं तव निर्दिशामि । ।
गुरु बड़े कृपापूर्ण शब्दों में उत्तर देते हुए कहते हैं- हे विद्वन् ! तुम डरो मत, तुम्हारे लिए मात्र अपाय- नाश या विघ्न ही नहीं है । संसार सागर को पार करने का उपाय भी है । यति- सन्यासी या योगी जिस मार्ग द्वारा संसार सागर को पार कर गए, वही मार्ग में तुम्हें बता रहा हूँ।
श्रद्धा, भक्ति, ध्यान एवं योग, इनको श्रुति मुमुक्षु के लिए मुक्ति के साक्षात् हेतु बतलाती है । जो इनमें अवस्थित हो जाता है, उसका अविद्या कल्पित- अज्ञान- प्रसूत उसका अविद्या कल्पित- अज्ञान प्रसूत देहबंधन छूट जाता है और वह मुक्त हो जाता है।
१. विवेक चूड़ामणि श्लोक-६-८.
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२. विवेक चूड़ामणि, श्लोक - ३७, ३८.