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________________ सिद्धत्वोपलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण है ? मोक्ष-मार्ग । है? यह सब निंदनीय, अनंत मूहों के कारण है, ऐसा अत्यंत न्म-मरणात्मक ती है। उसके ... अनंत, दुर्लभ र के विचित्र योग्य विविध, विषयों में ही सद्गुरु की कृपा से श्रेय के मार्ग में आने वाले विन एवं सभी बंधन नष्ट हो जाते हैं। सभी श्रेयस्कर, कल्याणकारी गुण स्वयं प्राप्त हो जाते हैं। जैसे एक जन्मांध पुरुष को रूप का ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार गुरु के उपदेश बिना करोड़ों कल्पों में भी तत्त्वज्ञान नहीं होता। | जब सद्गुरु की कृपा होती है, तब परमात्म तत्त्व की चर्चा, ध्यान आदि करने में श्रद्धा उत्पन्न | होती है। उससे हृदय में स्थित दुर्वासना ग्रंथि का नाश हो जाता है। हृदय में स्थित संपूर्ण कामनाएं नष्ट हो जाती हैं। उससे हृदय-कमल की कर्णिका में परमात्मा आविर्भूत हो जाते हैं। विषयों के प्रति बैराग्य उत्पन्न होता है। वैराग्य से बुद्धि में विज्ञान- तत्त्वज्ञान प्रगट होता है। अभ्यास द्वारा वह ज्ञान उत्तरोत्तर परिपक्व हो जाता है। परिपक्व विज्ञान से पुरुष जीवन्मुक्त हो जाता है। सभी शुभाशुभ कर्म वासनाओं के साथ नष्ट हो जाते हैं, तब अत्यंत दृढ़ सात्त्विक भावना द्वारा अतिशय भक्ति होती है। अतिशय भक्ति से परमात्मावस्था प्रकाशित होती है। इस प्रकार निरंतर भक्ति-पूर्वक समाधि की परंपरा से समस्त अवस्थाओं में परमात्मस्वरूप की प्रतीति होती है। ऐसे महापुरुषों को परमात्मसाक्षात्कार भी होता है। इस महापुरुष की जब त्याग की इच्छा होती है, तब भगवान् के पार्षद- दूत उसके निकट आते हैं। वह भगवान् का ध्यान करता हुआ कमल में स्थित परमात्म-तत्त्व का अपनी अंतरात्मा में चिंतन करता हुआ उनकी भलीभाँति भावपूजा करता है, फिर 'सोऽहं' का उच्चारण करता हुआ सभी इंद्रियों का संयम कर मन का भलीभाँति निरोध करता है। प्रणव का उच्चारण करता हुआ उसके अर्थ का अनुसंधान करता है। ऊर्ध्वगामी प्राणवायु के साथ धीरे-धीरे ब्रह्मरंध्र से बाहर चला जाता है। दस इंद्रिय, मन और बुद्धि इन बारह के अंत में उनके आधार रूप में अवस्थित परमात्मा को, चेतन तत्त्व को समाहित कर मानसिक रूप में उसका आस्वाद करता है। इस प्रक्रिया द्वारा परमात्मसाक्षात्कार का उपक्रम करता है। उसमें सफलता प्राप्त कर वह ब्रह्मानंद का अनुभव करता है।' ५ निर्मल ज्ञान | जीवन ऊँची-ऊँची उछलती हुई लहरों की तरह चंचल है। यौवन की सुंदरता कुछ ही दिनों तक टिकने वाली है। अर्थ-संपत्ति, वैभव, मनोरथ, मन की कल्पना के समान अस्थिर हैं। अर्थात् मन में एक कल्पना उठती है और तत्काल नष्ट हो जाती है। उसी तरह धन, वैभव नष्ट हो जाते हैं। भोग-समुच्चय वर्षा ऋतु के मेघों के मध्य विद्युत की चमक की तरह नश्वर हैं। ललनाओं का प्रेम प्रदर्शन भी क्षणिक है। अत: संसार के भयरूपी समुद्र को पार करने के लिए ब्रह्म- परमात्मा में अपने चित्त को लवलीन करे। । भाँति प्रतीत को अनिष्ट की और उसके न [ब्रह्मानंद के है। मोक्ष और र वैराग्य की न्मों में किए से शास्त्रों के र में प्रवृत्ति से अंत:करण १. वाल्मीकि, रामायण, उत्तरकांड, अध्याय-५, श्लोक-३-७. २. वैराग्यशतक, श्लोक-३६. 444
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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