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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनशीलन
४ वैराग्य, तत्त्वज्ञान एवं समाधि | शिष्य ने गुरु से पूछ- जीवों के अनादि संसार रूप भ्रम की निवृत्ति कैसे होती है ? मोक्ष-मार्ग का स्वरूप कैसा है ? मोक्ष का साधन क्या है ? उपाय क्या है ? सायुज्य-मुक्ति क्या है ? यह सब | तत्त्वत: समझाएं। ___ गुरु ने बड़े आदर के साथ शिष्य की प्रशंसा करते हुए कहा, सावधान होकर सुनो- निंदनीय, अनंत जन्मों में पुन:-पुन: कृत- किये हुए, अत्यंत पुष्ट, अनेकविध, विचित्र, अनंत दुष्करों के समूहों के कारण जीव को शरीर एवं आत्मा के पृथक्त्व का बोध नहीं होता, इसी कारण देह ही आत्मा है, ऐसा अत्यंत दृढ़ भ्रम बना रहता है। ___मैं अज्ञानी हूँ, अल्पज्ञ हूँ, जीव हूँ, अनंत दु:खों का निवास हूँ, अनादिकाल से जन्म-मरणात्मक संसार में पड़ा हूँ। इस प्रकार की भ्रांत वासना के कारण उसकी संसार में प्रवृत्ति होती है। उसके निवृत्ति का उपाय कदापि नहीं होता। ___ मिथ्यात्व-युक्त, स्वप्नसदृश विषय-भोगों का अनुभव कर अनेक प्रकार के असंख्य, अनंत, दुर्लभ मनोरथों की निरंतर आशा करता हुआ अतृप्त जीव सदा दौड़ता रहता है। अनेक प्रकार के विचित्र स्थूल-सूक्ष्म, उत्तम, अधम, अनंत शरीर धारण कर उन-उन शरीरों में प्राप्त होने योग्य विविध, विचित्र अनेक, शुभ-अशुभ प्रारब्ध कर्मों को भोग कर उन-उन कर्मों के फलात्मक विषयों में ही प्रवृत्ति होती है।
संसार से निवृत्ति के मार्ग में उनकी रुचि नहीं होती। अत: अनिष्ट ही उनको इष्ट की भाँति प्रतीत होता है। सांसारिक वासनामय, विपरीत भ्रम से इष्ट- मंगल स्वरूप मोक्ष-मार्ग उनको अनिष्ट की तरह जान पड़ता है। इसलिए सभी जीवों की इष्ट विषय में सुखात्मक बुद्धि होती है और उसके न प्राप्त होने से पर दु:खात्मक बुद्धि होती है। वास्तव में अबाधित- शाश्वत ब्रह्मसुख या ब्रह्मानंद के लिए तो उनमें रुचि, प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि उनको अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं है। मोक्ष और बंधन को वे नहीं जानते, क्योंकि उनमें अज्ञान की प्रबलता है। उनमें भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की भावना नहीं होती। उसका कारण यह है कि उनके अंत:करण में मलिनता है।
इससे छूटने का, संसार से पार होने का उपाय बतलाते हुए गुरु कहते हैं- अनेक जन्मों में किए हुए अत्यंत श्रेष्ठ पुण्यों के फल के उदित होने से सत्पुरुषों का संग प्राप्त होता है, जिससे शास्त्रों के सिद्धांतों का रहस्य समझ में आता है। विधि तथा निषेध का बोध होता है, तब सदाचार में प्रवृत्ति होती है। उसके परिणामस्वरूप संपूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। पापों का नाश हो जाने से अंत:करण अत्यंत निर्मल हो जाता है।
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