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________________ सिद्धत्वोपलब्धि ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिवाण है। वह के नाश प्रतिकूल मार्थ का स्वरूपमूलक है तथा विदेहमुक्त का अरूपमूलक अर्थात् जीवन्मुक्त का चित्त स्वरूप से तो रहता है, किंतु वह अचित्त बना रहता है। विदेहमुक्त उसको स्वरूपत: भावनाओं के साथ जोड़ देता है। फिर चित्त वासना और भावना का भी मन एवं बुद्धि के साथ परित्याग कर अंतत: परमात्म-भाव में पूर्णत: समाहित हो जाता है, जो शब्द, रूप, रस, वर्ण तथा गंध रहित है, जो कभी विकार को प्राप्त नहीं होता, जिसका न कोई नाम है, न कोई गोत्र है, जो साक्षी स्वरूप है, आकाश की तरह अनंत है, जिसे एक बार जान लेने पर कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। वह अजन्मा, अद्वितीय, निर्लेप, सर्वव्यापी और सर्वश्रेष्ठ है, अविनाशी ब्रह्म है, द्रष्टा है, शुद्ध स्वरूप है, आगे, पीछे, ऊपर, नीचे, सर्वत्र परिव्याप्त है, अजर, अमर, स्वयं प्रकाश, अव्यय एवं स्वयंभू है। इस प्रकार चिंतन करते-करते जब कालवश देहपात होगा, तब वायु के स्पंदन के समान जीवन्मुक्त पद का भी परित्याग हो जाएगा तथा निर्वाण- मुक्ति की अवस्था प्राप्त होगी। होता। इनका त होने ड-खंड का लंबे हैं, जैसे 'जन्मों ते छूट जनाओं प्रकार । कर्मों । मौन मनोलय- ब्रह्मप्राप्ति मन के दो प्रकार हैं- शद्धमन तथा अशद्धमन। जिसमें कामनाओं के. वैषयिक अभीप्साओं के संकल्प उत्थित होते रहते हैं, वह अशुद्ध मन है। मनुष्य का मन ही मोक्ष का कारण है, क्योंकि विषयों के संकल्प से शून्य होने पर मन का लय हो जाता है। इसीलिए मुमुक्षु साधक अपने मन को विषयों से सदा पृथक् रखे । जब मन से विषयासक्ति निकल जाती है और वह हृदय में स्थित हो जाता है, तब उन्मनीभाव को प्राप्त करता है। संकल्प-विकल्प से रहित हो जाता है, वही परम-पद है। मन को तब तक रोकने का प्रयत्न करना चाहिए, जब तक वह हृदय में विलीन न हो जाय। मन का हृदय में लय हो जाना ही ज्ञान और मोक्ष है। वैसा होने पर न तो कोई चिंतनीय रह जाता है और न अचिंतनीय ही। जब इन दोनों में से किसी के भी प्रति मन का पक्षपात और आग्रह न रहे, उस समय वह साधक ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है। स्वर तथा प्रणव के साथ परमात्मा की एकता करें और फिर प्रणव के अतिरिक्त परमतत्व की भावना या चिंतन करें। प्रणवातीत उस भावना द्वारा भाव स्वरूप परमात्मा की उपलब्धि होती है। अभाव की नहीं। अर्थात् उसके बिना समाधि शून्य रूप होती है। वही कलाओं से रहित, अवयव-विहीन विकल्प-शून्य तथा निरंजन- मायात्मक मन से रहित ब्रह्म है। “वह ब्रह्म मैं हूँ"- यह जानकर साधक निश्चय ही ब्रह्म हो जाता है। विकल्प-शून्य, अनंत हेतु, दृष्टांत-रहित, अप्रमेय, अनादि, परम कल्याणमय ब्रह्म को जानकर विद्वान् पुरुष अवश्य ही ब्रह्म रूप हो जाता है। ते एक त्याग उसकी 3, मन नाश १. मुक्तिकोपनिषद् शुक्लयजुर्वेदीय, अध्याय-२, श्लोक-२-१०, २१-२६, ७१-७६ :कल्याण (उपनिषद् अंक), पृष्ठ : ६२६-६२९. २. ब्रह्मबिन्दूपनिषद्, कृष्णयजुर्वेदीय, श्लोक-१-९, कल्याण (उपनिषद्-अंक), पृष्ठ : ६६४. 440 अरमान REE
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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