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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन । कर्त्तत्त्व तथा भोक्तत्व आदि द:खों की निवत्ति द्वारा शाश्वत आनंद की प्राप्ति होती है। वह प्राप्ति पुरुष के या जीव के प्रयत्न या पुरुषार्थ से सिद्ध होती है। प्रयत्न पूर्वक वेदांत के श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन से उत्पन्न समाधि से सारी वासनाओं के नाश होने पर जीवन्मुक्ति की सिद्धि होती है। पुरुषार्थ या प्रयत्न दो प्रकार का होता है। शास्त्र-प्रतिकूल और शास्त्र-अनुकूल। शास्त्र-प्रतिकूल पुरुषार्थ अनर्थजनक है तथा शास्त्रानुकूल पुरुषार्थ परमार्थ का साधन है। लोकवासना, शास्त्रवासना तथा देहवासना के कारण प्राणी को यथार्थ ज्ञान प्राप्त नहीं होता। वासना-क्षय, विज्ञान और मनोनाश- इन तीनों का एक साथ चिरकाल तक अभ्यास करने से इनका फल प्राप्त होता है। यदि इन तीनों का एक साथ अभ्यास नहीं किया जाय तो सैंकड़ों वर्ष व्यतीत होने पर भी कैवल्य-पद की प्राप्ति नहीं होती। यदि इनका पथक्-पथक चिरकाल तक भी अत्यधिक अभ्यास किया जाय तो जिस प्रकार खंड-खंड करके जपे मंत्र सिद्ध नहीं होते, उसी प्रकार उनसे सिद्धि प्राप्त नहीं होती। यदि इन तीनों का लंबे समय तक अभ्यास किया जाय तो हृदय की दृढ़ ग्रंथियाँ नि:संदेह उसी प्रकार नष्ट हो जाती हैं, जैसे कमल-नाल को तोड़ने पर उसके रेशे- तंतु टूट जाते हैं। जिस मिथ्या संसार-वासना का सैकड़ों जन्मों से अभ्यास चला आ रहा है, वह दीर्घकाल पर्यंत साधना किए बिना कदापि क्षीण नहीं होती। __वासना से युक्त मन को ज्ञानी पुरुषों ने बद्ध बतलाया है तथा जो मन वासना से भलीभाँति छूट जाता है, वह मुक्त कहलाता है। सम्यक् रूप में विचार करने से और सत्य के अभ्यास से वासनाओं का नाश हो जाता है। वासनाओं के नष्ट होने पर चित्त उसी प्रकार विलीन हो जाता है, जिस प्रकार तेल के समाप्त होने पर दीपक बुझ जाता है। जिसके मन से वासनाएँ दूर हो जाती हैं, उसे न तो कर्मों के त्याग से प्रयोजन है और न ही कर्मों के अनुष्ठान से। सारी वासनाओं का परित्याग कर मन मौन धारण कर लेता है। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई परमपद नहीं है। चित्तरूपी वृक्ष के दो बीज हैं। प्राणस्पंदन- प्राणों की गति तथा वासना। इन दोनों में से एक के भी क्षीण होने पर दोनों नष्ट हो जाते हैं। अनासक्त होकर व्यवहार करने से, संसार का चिंतन त्याग देने से, शरीर की नश्वरता का दर्शन या अनुभवन करते रहने से वासना उत्पन्न नहीं होती। वासना का भलीभाँति त्याग हो जाने पर चित्त, अचित्तता प्राप्त कर लेता है। अर्थात् उसकी वासनात्मक प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है। वासना के नष्ट हो जाने पर मन मनन करना त्याग देता है, मन के निराकृत होने पर विवेक की उत्पत्ति होती है, जो परम शांतिप्रद है। चित्तनाश दो प्रकार का होता है- स्वरूप मूलक एवं अरूप मूलक । जीवन्मुक्त का चित्तनाश 439
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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