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सिद्धत्वोपलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण
। है, फिर वे
करने वाला फिर चैतन्य
ल लीलामात्र नाएँ पूर्ण हैं,
तथा जैसे श्वर की भी यानुमोदित
सृष्टि रूप वे अपरिमित
स्वरूपावबोध : ब्रह्मसाक्षात्कार
उपनिषद् आदि ग्रंथों में ब्रह्मसाक्षात्कार के सन्दर्भ में ज्ञान की अनन्य हेतुमत्ता का दिग्दर्शन कराते हुए विविध प्रकार से वर्णन किया गया है। कहा गया है- ब्रह्मवित्- जो ब्रह्म को जानता है, वह परब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।
भिद्यते हृदयग्रंथिश्छिद्यन्ते सर्वसंशया: ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि, तस्मिन् दृष्टे परावरे ।। परात्पर परब्रह्म को तत्त्वत: जान लेने पर हृदय की ग्रंथि- गांठ भिन्न हो जाती है, खुल जाती है। समग्र संशय छिन्न हो जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं तथा समस्त शुभाशुभ कर्म क्षीण हो जाते हैं।
परब्रह्म या परमेश्वर न तो उनको प्राप्त होते हैं जो शास्त्रों को पढ-सुनकर बड़ी सुंदर भाषा में बोल सकते हैं, परमात्मस्वरूप को तरह-तरह से वर्णन कर सकते हैं, न उन मेधावी मनुष्यों को ही मिलते हैं, जो बुद्धि द्वारा, तर्क द्वारा विवेचन करके उन्हें समझने की चेष्टा करते हैं, न उन्हें मिलते है, जिन्होंने शास्त्रों का अत्यधिक अध्ययन किया है। | वे तो उसी को प्राप्त होते हैं, जिनमें उनके लिए उत्कट इच्छा होती है। जो उनके बिना रह ही नहीं सकते । जो अपनी बुद्धि या शास्त्र-ज्ञान का भरोसा न कर केवल परमेश्वर की कृपा की ही प्रतीक्षा करते रहते है।
लक लीला वह यह सब भौर न तोड़ कार भी है, उद्देश्य नहीं :-रचना में त्मा सर्वथा
जीवन्मुक्ति : विदेहमुक्ति
शुक्लयजुर्वेदीय मुक्तिकोपनिषद् के दूसरे अध्याय में जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति का वर्णन हुआ है। वहाँ यह कहा गया है कि जीव को “मैं भोगता हूँ, कर्ता हूँ, सुखी हूँ, दु:खी हूँ"- इत्यादि जो ज्ञान होता है, वह चित्त का धर्म है। यह ज्ञान क्लेश-रूप है, इसलिए बंधन का हेतु है। इस प्रकार के ज्ञान को रोकना ही जीवन्मुक्ति है। उदाहरणार्थ एक घट को लें। घट के भीतर जो रिक्त स्थान है, वह घटाकाश है। घट से आवृत्त होने के कारण वह आकाश से पृथक् प्रतीत होता है।
घट रूप उपाधि से मुक्त हो जाने पर अर्थात घट रूप उपाधि के नष्ट होने पर घटाकाश जिस प्रकार मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार जीव प्रारब्ध रूप उपाधि के नष्ट होने पर विदेह-मुक्त हो जाता है।
होने वाले कार्य तो है T सकता। अपेक्षा से, । इसलिए । दोनों ही दांतानुसार ता।
१. तैत्तिरीयोपनिषद्, बल्ली-१, अनुवाक-१ : ईशादि नौ उपनिषद्, पृष्ठ : ३६०, २. मुण्डकोपनिषद्, मुण्डक-२ : ईशादि नौ उपनिषद् : पृष्ठ : २४. ३. कठोपनिषद् अध्याय-१, वल्ली-२, श्लोक-२३, पृष्ठ : ९५,९६.
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