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________________ णमो सिद्धाणं पद: समीक्षात्मक अनशीलन MANORAMINIMILSISE KANPATANAMAHARASHTRAMANTRAPAINTS काम वहाँ यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि परमात्मा को तो कोई प्रयोजन नहीं है, फिर वे सृष्टि-रचना क्यों करते हैं ? सूत्र एवं भाष्य में इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है- संसार में कोई भी बुद्धिपूर्वक कार्य करने वाला चेतन पुरुष किसी भी अनुपयोगी प्रवृत्ति में जरा भी संलग्न होता हुआ दिखाई नहीं देता, फिर चैतन्य | स्वरूप परमात्मा बिना प्रयोजन के ही उस जगत् की रचना क्यों करते हैं ? इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि परमात्मा द्वारा सृष्टि की रचना तो केवल लीलामात्र है। लोक में जैसे कोई राजा या उसका अमात्य, जो आप्तकाम हैं- जिनकी सभी कामनाएँ पूर्ण हैं, किसी प्रयोजन के बिना ही केवल लीला रूप क्रीड़ा-विहार आदि में प्रवृत्त होते हैं तथा जैसे उच्छवास-प्रश्वास स्वभाव से ही आते-जाते हैं, वहाँ कोई प्रयोजन नहीं है, उसी प्रकार ईश्वर की भी प्रवृत्ति लीलारूप, स्वभाव मात्र है। ईश्वर का उसके अतिरिक्त अन्य कोई भी प्रयोजन न न्यायानुमोदित है, न वेदानुमोदित है। स्वभाव के साथ प्रयोजन को नहीं जोड़ा जा सकता। यद्यपि जगत् सृष्टि रूप कार्य हमको बहुत बड़ा प्रतीत होता है, परंतु परमेश्वर के लिए वह लीला मात्र है, क्योंकि वे अपरिमित शक्तिशाली हैं। लीलाकैवल्य को एक और उदाहरण से व्याख्यात किया जाता है-जैसे एक अबोध बालक लीला या क्रीड़ा हेतु गीली मिट्टी के घरौंदे बनाता है तथा कुछ ही देर में उन्हें तोड़ डालता है। वह यह सब क्रीड़ा या खेल के लिए करता है। न तो उसे घरौंदें बनाने में सुख या उल्लास होता है और न तोड़ डालने में मानसिक पीड़ा ही होती है, क्योंकि बालक अबोध होने के साथ-साथ निर्विकार भी है, आसक्ति-रहित भी। इसी प्रकार सृष्टि-रचना में ब्रह्म की कोई अभिलाषा, आसक्ति या उद्देश्य नहीं होता। सर्वथा अनासक्त होने से वैसा करने में कोई दोष नहीं आता। ये उदाहरण सृष्टि-रचना में लीलाकैवल्य के सिद्धान्त के साथ सर्वथा घटित नहीं होते, क्योंकि ये अपूर्ण हैं। परमात्मा सर्वथा परिपूर्ण है। केवल बाह्य दृष्टि से समझाने हेतु उनका उपयोग किया गया है। । यद्यपि प्रयोजन से सर्वथा अस्पष्ट या अतीत रहते हुए जो कार्य होता है, वह साधारणत: होने वाले कार्यों से सर्वथा भिन्न है। वह विकार-युक्त या लेप-युक्त नहीं माना जाता, पर आखिर कार्य तो है ही। कार्य के साथ प्रयोजनशून्यता के बावजूद कारणता का संबंध अस्वीकार नहीं किया जा सकता। यहाँ जैन सिद्धान्त का ऐसा अभिमत है कि सिद्धत्व प्राप्त करने के अनंतर फिर किसी भी अपेक्ष किसी भी प्रकार के लोक-विषयक कर्म के साथ उनका जरा भी कारणमूलक संबंध नहीं रहता। इसलिए सिद्ध कृतकृत्य कहे जाते हैं। कृतकृत्यता सर्वथा अकर्मावस्था है। भावात्मक एवं क्रियात्मक दोनों ही अवस्थाओं से यह अतीत है। परम सिद्धावस्था के साथ यह सर्वथा संगत भी है। जैन सिद्धांतानुसार सृष्टि-क्रम अनादि-अनंत है। अत: अनादि-अनंत के साथ कर्तृत्व का संबंध घटित नहीं होता। 437
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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