________________
है और
रिछिन्न
केवल
अनेक
कल्पित
द्वितीय,
बंद रस
प्रमाण
काशित
कल्प,
द्धे का है।
रेवर्तन सर्वथा
परम
,
या है,
ना ।
यूरिने
४३.
सिद्धत्योपलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण
सदाशिव, परब्रह्म, सिद्धात्मा एवं तथता- तथागत आदि शब्दों द्वारा एक ही परमतत्त्व का | प्रतिपादन किया जाता है। शब्द भेद होने पर भी अर्थ की दृष्टि से वह एक ही है।'
यहाँ यह विचारणीय है- ब्रह्म को वायु, जल आदि प्राकृतिक तत्त्वों तथा जगत् के प्राणियों के क्रिया-कलाप के साथ जो जोड़ा जाता है, ब्रह्म की शक्तिमूलक प्रेरणा से वे सब कार्यशील होते हैं, ऐसा जो माना जाता है, इस सम्बंध में जैन दर्शन का अभिमत भिन्न है।
सिद्ध कृतकार्य होते हैं । बहिर्जगत् में जो घटित होता है, उसके साथ उनके कर्त्तृत्त्व या प्रेरकत्व का संबंध नहीं होता। वे सर्वथा कर्म- हैं। - मुक्त
सिद्ध इच्छा, अभिलाषा या कामना से विमुक्त हैं। संसार में जो कुछ हो रहा है, उसमें वे न किसी | प्रकार से बाधक बनते हैं और न सहायक ही । वे अपने सहज, चिन्मय, आनंदमय स्वरूप में अवस्थित
होते हैं ।
प्रेरणा, संरचना, आदि किसी भी कर्म के मूल में कुछ न कुछ आभीप्सा का भाव जुड़ा रहता है। व्यक्ति तदनुरूप तत्तत्संबद्ध इंद्रियों द्वारा भिन्न-भिन्न क्रियाएँ करता है । इसलिए वही क्रियाओं का कर्त्ता या सृष्टा है । परमेश्वर तो केवल तटस्थ भाव से द्रष्टा है ।
सिद्ध या परब्रह्म जागतिक, दैहिक कर्मों से अतीत हैं। नितांत आध्यात्मिक है। सूक्ष्म और स्थूल दोनों ही शरीरों से रहित हैं। अशरीरी हैं। यहाँ तक दोनों की भूमिका में कोई अंतर दृष्टिगोचर नहीं होता, किंतु वैदिक वाङ्मय में परब्रह्म का सांसारिक पदार्थों के साथ जो कर्तृत्व अभिहित गया है, जैन दर्शन में वैसा नहीं है ।
उपनिषदों में कहा गया है कि प्राणियों के कर्मों के अनुसार परमेश्वर उनके लिए समग्र पदार्थों की सृष्टि करते हैं, व्यवस्था करते हैं। जैन दर्शन कर्मवादी है। उसके अनुसार एक व्यक्ति शुभ या । अशुभ, पुण्य या पाप जैसा भी कर्म करता है, उसका फल उन्हीं कर्मों के उदयानुरूप उसे प्राप्त हो जाता है । फल देने के लिये किसी अन्य माध्यम को वहाँ अपेक्षित नहीं माना गया है। जब कर्मों का | अपना भिन्न-भिन्न प्रकार का स्वभाव - प्रभाव है, तब तदनुरूप फलप्राप्ति में निरपेक्ष रूप में वे ही कारण होते हैं।
लीलाकैवल्य का स्पष्टीकरण
परमात्मा द्वारा सृष्टि रचना किए जाने का विषय ब्रह्मसूत्र में तथा उस पर आद्य शंकराचार्य रचित 'शारीरक भाष्य' में व्याख्यात हुआ है।
१. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक १३० जैनयोग ग्रंथ चतुष्टय, पृष्ठ ४०.
:
436