SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 479
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन परमपद के सोपान १. प्रणव अनेक योजन तक फैले हुए पर्वत के समान अत्यधिक विपुल पाप-राशि हो तो वह ध्यान-योग द्वारा नष्ट हो जाती है। वह और किसी साधन से नष्ट नहीं होती। बीज कारणभूत अक्षर- आकार से परे बिंदु है और बिंदु से भी परे नाद है। इससे सुंदर शब्द का उच्चारण होता है। शक्तिमूलक प्रणव नाद से भी परे स्थित है तथा आकार से लेकर शक्ति-पर्यंत प्रणवरूप अक्षर के क्षीण होने पर जो शब्दहीन स्थिति होती है, वह परमपद है। उसे शांत कहा जाता है, जो अनाहत, बिना आघात के उत्पन्न, ध्यान में श्रूयमान, मेघ-गर्जन के समान प्राकृतिक आदि शब्द हैं, उसका भी परम कारण शक्ति है। उसके भी परम कारण- सच्चिदानंद-स्वरूप शांत-पद को जो योगी प्राप्त कर लेता है, उसके समस्त संशय नष्ट हो जाते हैं। बाल के अग्र भाग को पचास हजार भागों में विभक्त किया जाए, पुनश्च उनपचास हजार में से एक भाग के सहन भाग किए जाएं, उस भाग का भी जो अर्ध भाग है, उसके सदृश सूक्ष्मातिसूक्ष्म वह निरंजन विशुद्ध ब्रह्म है। इसका तात्पर्य यह है कि वह अत्यंत सूक्ष्म, अव्यक्त परम तत्त्व है। ___जैसे पुष्प में गंध, दूध में घृत, तिल में तेल, पत्थर में सोना अव्यक्त रूप में विद्यमान रहता है, वैसे ही आत्मा समस्त प्राणियों में विद्यमान है। निश्चयात्मिका बुद्धि से युक्त, अज्ञान रहित ब्रह्मवेत्ता मणियों की माला में सूत्र की तरह अव्यक्त आत्मा को व्याप्त जान कर उसके ब्रह्मस्वरूप में स्थित रहते हैं। २. स्वरूपज्ञान ब्रह्म त्रिताप विवर्जित, छ: कोषों के धातु से शून्य, षट् उर्मियों से रहित, पंच कोशातीत, षट् भाव विकारों से विरहित- सबसे विलक्षण है। आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक- ये तीन ताप हैं, जो कर्ता-कर्म-कार्य, ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय, भोक्ता-भोग-भोग्य, इस प्रकार प्रत्येक तीन प्रकार के हैं। चर्म, मांस, रक्त, अस्थि, नाड़ी, मज्जा-ये छ: कोश या धातएं हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य- ये छ: शत्रु वर्ग हैं। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय- ये पाँच कोश हैं। प्रियता, उत्पत्ति, वृद्धि, परिवर्तन, हास, नाश- ये छ: भाव विकार हैं । क्षुधा, तृषा, शोक, मोह, जरा तथा मृत्यु- ये छ: उर्मियाँ १. ध्यानबिन्दूपनिषद्, कृष्णयजुर्वेदीय, श्लोक-१-७, कल्याण (उपनिषद्-अंक), पृष्ठ : ६६६. 441 BABA
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy