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सिद्धत्वोपलब्धि ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण
ज भी मन कर ये सब ह परब्रह्म ति स्वरूप
वाणी ही हुँच पाता जानते हैं
है। अपने समझाया देत होती क्त करने
नहीं लौटता, जन्म मरण में नहीं आता" इत्यादि श्रुति से उसका नित्यत्व सिद्ध होता है। “उसके कर्मचित- कर्मों के परिणामस्वरूप प्राप्त लोक क्षीण हो जाते हैं, उसी प्रकार पुण्यों से प्राप्त लोक भी क्षीण हो जाते है"- इस श्रुति के अनुसार ब्रह्म के अतिरिक्त धर्म, अर्थ एवं काम इन तीनों का अनित्यत्व सिद्ध होता है।
भृगु नामक ऋषि थे, जो वरुण के पुत्र थे। उनके मन में परमात्मा को जानने और प्राप्त करने की अभिलाषा उत्पन्न हुई। तब वे अपने पिता वरुण के पास गए। अपने पिता से यह प्रार्थना की "भगवन् ! मैं ब्रह्म को जानना चाहता हूँ।" वरुण ने उससे कहा- “अन्न, प्राण, नेत्र, श्रोत्र, मन और वाणी- सभी ब्रह्म की उपलब्धि के द्वार हैं। साथ ही यह भी कहा- “ये प्रत्यक्ष दिखलाई देने वाले सब प्राणी जिससे उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जिसके बल पर जीते हैं- जीवनोपयोग क्रिया करने में समर्थ होते हैं और अन्तत: उसी में अभिसन्निविष्ट-विलीन हो जाते हैं, उसकी विजिज्ञासा करो, वही | ब्रह्म है।" । जिस प्रकार तिलों में तैल, दही में घी, ऊपर से सूखी हुई नदी के भीतरी स्रोतों में जल तथा अरणियों में अग्नि छिपी रहती है, उसी प्रकार परमात्मा हमारी आत्मा में छिपे हैं। जिस प्रकार अपनेअपने स्थान में छिपे हुए तैलादि तद्विषयक उपायों से प्राप्त किए जा सकते हैं, उसी प्रकार कोई साधक विषयों से विरक्त होकर सदाचार, सत्य-भाषण, तथा संयम-रूप तपस्या द्वारा साधना करता हुआ उनका निरंतर ध्यान करता है, वह परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त करता है।
श्रीमद्भागवत में उल्लेख हुआ है--
जो इस संसार की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय का निमित्त कारण और उपादान कारण दोनों ही है, किन्तु स्वयं कारण-रहित है, जो जागर्ति एवं सुषुप्ति अवस्थाओं में उनके साक्षी के रूप में विद्यमान रहता है और उनके अतिरिक्त समाधि में भी जो ज्यों का त्यों एकरस रहता है, जिसकी सत्ता से ही सत्तावान् होकर शरीर, इंद्रिय और अन्त:करण अपना-अपना कार्य करने में समर्थ होते हैं, वही परम तत्त्व, परब्रह्म है। जैसे चिनगारियाँ न तो अग्नि को प्रकाशित कर सकती हैं, न जला सकती हैं, वैसे ही परमतत्त्व में न तो मन की गति है और न वाणी की ही। नेत्र उसे देख नहीं सकते, बुद्धि सोच नहीं सकती, प्राण और इंद्रियाँ उसके पास तक नहीं जा सकते । 'नेति-नेति' इत्यादि श्रुतियों के शब्द भी 'वह यह है उस रूप में उसका वर्णन नहीं कर सकते वरन् उसका बोध कराने वाले जितने भी साधन हैं, उनका निषेध करते हैं। परमतत्त्व का अस्तित्त्व होने पर ही निषेध की सिद्धि होती है।
नहीं है।
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जिसको , उसको
वह ब्रह्म त होता ले जिस
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१. वेदांत परिभाषा, सूत्र-१, २, पृष्ठ : २,३. २. तैत्तिरीयोपनिषद्, वल्ली-३, अनुवाक-१ : ईशादि नौ उपनिषद, पृष्ठ : ३९६. ३. श्वेताश्वतरोपनिषद्, अध्याय-१, श्लोक-१५ : ईशादि नौ उपानिषद, पृष्ठ : ४३९.
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