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________________ सिद्धत्वोपलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण धा नहीं हैं, वहाँ हाँ नहीं ते, वहीं मीमांसा दर्शन में वेद की अपौरुषेयता के संबंध में चर्चा करते हुए कहा है कि वेद स्वयं प्रमाण हैं, नित्य हैं। उन्हें प्रमाणित करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। नित्य और शाश्वत होने के कारण न इनकी उत्पत्ति होती है और न विनाश ही होता है। इसलिए वेद न तो किसी व्यक्ति द्वारा रचित हैं और न ही ईश्वर द्वारा रचित हैं। | मीमांसा दर्शन ईश्वर जैसी किसी ऐसी सत्ता को स्वीकार नहीं करता, जो इस जगत् की रचना, पालन और संहार करती हो, वह वेद और जगत को नित्य मानता है। अपने सिद्धांत की पुष्टि के लिए मीमांसकों ने शब्द, अर्थ और शब्दार्थ के संबंध को नित्य स्वीकार किया। उन्होंने बतलाया कि वेदों की नित्यता का प्रमाण 'शब्दनित्यत्ववाद' पर आधारित है। जिसके अनुसार शब्द को नित्य, सर्वगत और निरवयव स्वीकार किया गया है। अर्थात् शब्द उत्पन्न नहीं होता। वह दो या अधिक वर्गों का समूह होता है। उच्चरित वर्ण उसकी ध्वनि से भिन्न है और लिखित वर्ण उसके रूप से भिन्न है- क्योंकि वस्तुत: वर्ण नित्य और अपरिणामी है, किंतु उसकी उच्चरित ध्वनि या लिखित रूप अनित्य तथा परिणमनशील है। यदि एक ही वर्ण का दस व्यक्ति दस ध्वनियों से उच्चारण करें या दस प्रकार से लिखें तो वे उस वर्ण के प्रकार नहीं बन सकते। वे तो उसकी भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा की गई अभिव्यक्तियाँ हैं। अत: शब्द नित्य है। शब्द का अर्थ भी, जो नित्य-सामान्य होता है, नित्य है तथा शब्द और अर्थ का संबंध भी नित्य है, जो न ईश्वरीय संकेत से आता है और न रूढ़िगत वृद्ध-व्यवहार से ही विदित होता तीर्थंकरों होंने जो । उनसे सदा से से आया त्तरवर्ती नभिप्राय कहे जा इस प्रकार वेद नित्य और मूलभूत शब्दों के भंडार हैं। लिखित और उच्चरित वेद तो मूल वेद के, जो अनादि हैं, प्रकाशन मात्र हैं। | इस संदर्भ में एक शंका उत्पन्न हो सकती है कि वेद शब्द नित्यत्व के आधार पर नित्य है। इस | सिद्धांत की अतिव्याप्ति साहित्य के ग्रंथों में भी हो सकती है। इसका समाधान करते हुए मीमांसक कहते हैं कि साहित्यिक ग्रंथों में वर्णों की अभिव्यक्ति तो हुई, परंतु शब्दों के प्रयोग का क्रम या अनुपूर्वी रचयिता, लेखक या वक्ता पर निर्भर है। इसलिए ये पौरुषेय हैं। पौरुषेय होने से इनमें संशय, विपर्यय आदि दोषों की संभावना है। वेदों के अपौरुषेय होने के कारण उनमें शब्द-क्रम और अनुपूर्वी नियत है तथा संशय, विपर्यय आदि की जरा भी संभावना नहीं नि हुआ वेदों की है। गाते हैं। पीमांसा, इस प्रकार वेद किसी कर्ता या रचयिता द्वारा निर्मित नहीं हैं। उनमें कहीं भी किसी कर्ता का नाम नहीं दीखता । कहीं-कहीं ऋषियों के नाम प्राप्त होते हैं। वहाँ उल्लेख है- 'ऋषयो मंत्र द्रष्टारः।' अर्थात् ऋषि मंत्रों के द्रष्टा हैं, स्रष्टा नहीं हैं। 430 कहा
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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