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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन
समस्त कर्मों के ध्वस्त होने पर सिद्धों की ऊर्ध्वगति होती है। उनको किसी प्रकार की बाधा नहीं होती, वैसा होने पर वे लोकाग्र तक जाकर रुक क्यों जाते हैं ? यह प्रश्न उपस्थित होता है ।
जैन दर्शन की दृष्टि से इसका यह समाधान है कि जहाँ लोक की सीमाएं समाप्त होती हैं, वहाँ | से आगे अलोक है । अलोक में आकाशास्तिकाय, धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय नहीं हैं । ये जहाँ नहीं हैं, वहाँ गति, स्थिति नहीं होती। इसलिए सिद्ध भगवान्, लोकाग्र के आगे गमन नहीं करते, वहीं शाश्वत रूप में समवस्थित रहते हैं ।
सिद्ध एवं ब्रह्म तुलना समीक्षा
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| जैन श्रुत-परंपरा की अनादिता
जैन धर्म में श्रुत की परंपरा को अनादि माना जाता है । आगम उसके परिचायक हैं, जो तीर्थंकरों | द्वारा प्ररूपित या उपदिष्ट किए जाते हैं । भगवान् महावीर इस युग के अंतिम तीर्थंकर थे । उन्होंने जो धर्म देशना दी, वह अनादि परंपरा से चले आते हुए श्रुत या ज्ञान का प्रतिनिधित्व करती है। उनसे | पूर्ववर्ती तीर्थंकर अपने-अपने युग में जो धर्म देशना देते रहे, वह उसी ज्ञान से संबद्ध थी, जो सदा से चला आ रहा है।
तीर्थंकरों द्वारा दी गई देशना को आगम इसलिए कहा जाता है कि वह शाश्वत काल से आया | हुआ ज्ञान का दिव्य स्रोत है । आगमों पर प्रथम अध्याय में विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
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जिस प्रकार आगम जैन धर्म के मूल हैं, उसी प्रकार वैदिक धर्म का मूल आधार वेद हैं। उत्तरवर्ती आचायें ने जो भिन्न-भिन्न शास्त्रों की रचना की, उनकी प्रामाणिकता वेदमूलक है। इसका अभिप्राय यह है कि यदि वे शास्त्र वैदिक सिद्धांतों के प्रतिकूल निरूपण करते हों तो वे प्रामाणिक नहीं कहे जा सकते।
| वेदों की अपौरुषेयता
औपनिषदिक वाङ्मय में ब्रह्म या परब्रह्म का परम तत्त्व या परम साध्य के रूप में विवेचन हुआ | है । उपनिषद वेदों के ज्ञान काण्ड के रूप में प्रसिद्ध हैं । उनका आधार वेद हैं । अतः यहाँ वेदों की | चर्चा के साथ परब्रह्म का विश्लेषण किया जाएगा।
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वैदिक धर्म के अनुसार वेद किसी पुरुष की रचना नहीं हैं। इसलिए वे अपौरुषेय कहे जाते हैं। | वैदिक परंपरानुगत विभिन्न दार्शनिकों ने वेदों की अपौरुषेयत्ता की विशद व्याख्या की है। मीमांसा, वेदांत, सांख्य, योग, न्याय और वैशेषिक ये छ: दर्शन वैदिक परंपरानुगत हैं।
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