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अंत:
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गांठ
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सहज
समीक्षा
सिद्धत्वोपलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण
अशुभोपयोग और शुभोपयोग कर्मावरणजनक हैं। इन द्वारा अशुभ- पापात्मक, शुभ-पुण्यात्मक | कर्म पुद्गुल आकृष्ट होते हैं और वे आत्म-स्वरूप का आच्छादन करते हैं । यह आच्छादन शरीर, इंद्रिय, रूप, संहनन, संस्थान आदि अनेक विधाओं में प्रतिफलित होता है ।
शुद्धोपयोग आवरण-शून्य अवस्था है, क्योंकि वहाँ आसवगत योग प्रशस्ताप्रशस्त रूप में प्रवृत्त नहीं होता। प्रशस्त एवं अप्रशस्त का कपायों की मंदता और तीव्रता से संबंध है। शुद्धोपयोग में ये | दोनों ही स्थितियाँ नहीं होतीं। यहाँ इन्द्रादि की विद्यमानता नहीं होती। शुद्धात्मा ही सिद्धात्मा है। सिद्धों का वैशिष्ट्य
निरवशेष रूप से अंतर्मुखाकार, सर्वथा अंतर्मुख, स्वरूप युक्त, स्वात्माश्रित, परम शुक्ल ध्यान के | प्रभाव से ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्मों का क्षय होने पर सिद्ध भगवान् के केवल ज्ञान, केवल दर्शन, होते हैं। केवल वीर्य, केवल सुख, अमूर्त्तत्त्व, अस्तित्त्व तथा सप्रदेशत्व आदि स्वाभाविक गुण निर्वाण ही सिद्ध है और सिद्ध ही निर्वाण है, ऐसा शास्त्रों में उपदिष्ट किया गया है।
कर्मों से विमुक्त आत्मा लोकाग्र पर्यंत जाती है। जहाँ तक धर्मास्तिकाय है, वहीं तक जीव और पुद्गलों का गमन होता है । धर्मास्तिकाय के अभाव में सिद्ध लोकाग्र-भाग के आगे नहीं जाते, क्योंकि लोकाग्र-भाग के आगे अलोकाकाश है । उसमें धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय नहीं हैं, जो क्रमश: गति एवं स्थिति के निरपेक्ष हेतु हैं ।
| निष्कर्ष
सिद्ध भगवान् के या शुद्ध आत्मा के गुणों को ढकने वाले आठ प्रकार के कर्म जब साधना और तप द्वारा निर्जीर्ण हो जाते हैं, तब उनका विशुद्ध स्वरूप केवल ज्ञान आदि के रूप में व्यक्त होता है। | यह कोई अभिनव उत्पत्ति नहीं है । आवरण के पृथक् होने से स्वाभाविक गुणों की अभिव्यक्ति है ।
ऐसा होने पर जीव सिद्धत्व प्राप्त कर लेता है । वह निर्वाण या परम शांतावस्था है, इसलिए कहा जाता है कि निर्वाण ही सिद्ध है और सिद्ध ही निर्वाण है ।
जब एकात्म्य या तादात्म्य हो जाता है तो दोनों एक बन जाते हैं। इसलिए यहाँ निर्वाण या सिद्धि तथा सिद्ध के एकत्व का प्रतिपादन किया गया है ।
१. नियमसार, गाथा- ४२-४४, पृष्ठ: ३६-४५. २. नियमसार गाथा १८२-१८४, पृष्ठ ३६३-१६६.
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