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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन
वेदों के अपौरुषेयवाद पर विविध रूपों में जो चर्चाएँ हुई है, उसका यह एक उदाहरण है। इसका निष्कर्ष यह है कि जिस प्रकार जैन आगमगत ज्ञान आदि है, उसी प्रकार वेद भी अनादि हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद - ये चार वेद हैं । वेदों के मुख्य रूप में कर्मकांड और ज्ञानकांड दो भेद
कर्मकांड में यज्ञ-याग आदि का विस्तृत वर्णन है। उससे संबंधित भिन्न-भिन्न वेदों के भिन्न-भिन्न ब्राह्मण ग्रंथ हैं, जिनमें यज्ञों के विधि-विधानों का विवेचन है।
उपनिषद् वेदों के ज्ञानकांड हैं । इनमें आत्मा-परमात्मा, जीव, ब्रह्म आदि तत्त्वों का बड़ा ही सुंदर विवेचन हुआ है।
यहाँ उपनिषद् एवं तत्संबंधी ग्रंथों में वर्णित ब्रह्म तत्त्व का समीक्षात्मक विश्लेषण किया जा रहा
है ।
ब्रह्म का स्वरूप
'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' - ब्रह्म सत्य है, ज्ञानस्वरूप है, अनन्त है । ब्रह्म के सम्बन्ध में कहा गया
है
“वे एक ही परमदेव, परमेश्वर समस्त प्राणियों की हृदय रूप गुहा में छिपे हुए हैं । वे सर्वव्यापी हैं। समस्त प्राणियों के अंतर्यामी हैं। वे ही सब के कर्मों के अधिष्ठाता, कर्मानुसार फल देने वाले और समस्त प्राणियों के निवास स्थान- आश्रय है तथा वे ही सब के साक्षी शुभाशुभ कर्म को देखने वाले, परम चेतनस्वरूप एवं सब को चेतना प्रदान करने वाले, सर्वथा विशुद्ध, सर्वथा निर्लेप तथा प्रकृति के गुणों से अतीत हैं । " २
स्वप्रकाश, परमानंद-स्वरूप परब्रह्म परमेश्वर के समीप यह सूर्य प्रकाशित नहीं होता । विद्युत्, चंद्र, एवं तारागण भी वहाँ नहीं चमकते। फिर इस अग्नि की तो बात ही क्या है ? इस जगत् में जो कुछ भी तत्त्व प्रकाशशील हैं, वे सब परमेश्वर की प्रकाश-शक्ति के अंश को पाकर ही प्रकाशित हैं ।
अमृत-स्वरूप परब्रह्म परमात्मा ही आगे पीछे, दाएँ, बाएँ, बाहर, भीतर, ऊपर, नीचे, सर्वत्र फैले हुए हैं । इस विश्व ब्रह्मांड के रूप में सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म ही प्रत्यक्ष प्रस्तुत हैं ।
सर्ग - सृष्टि के आदि में परब्रह्म परमात्मा ने यह विचार किया कि मैं नाना रूप में उत्पन्न होकर
१. तैत्तिरीयोपनिषद्, वल्ली-१, अनुवाक १ ईशादि नी उपनिषद् पृष्ठ ३६१.
२. श्वेताश्वतरोपनिषद् अध्याय ६ श्लोक ११, ईशादि नौ उपनिषद् पृष्ठ ५०८. ३. मुण्डकोपनिषद्, मुण्डक - १, खंड- २, श्लोक - १०, ११
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