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________________ सिद्धत्वोपलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण विशेष इट ज्ञान, दर्शन और सुख आत्मा का स्वभाव है। संसारावस्था में वह अनादि कर्मों के क्लेश से युक्त होती है। जब क्रमश: कुछ-कुछ ज्ञान प्राप्त करती है, अपने स्वरूप का दर्शन करती है, तब उसे किंचित् सुख की अनुभूति होती है, किंतु वह सुख व्याबाध- बाधा तथा अंत से युक्त होता है, मिट सकता है, परंतु जब वही आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हो जाती है, तब उसे अनंत-निर्बाध और आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति होती है। इस संसार में संख्यात्मक दृष्टि से अनंत जीव हैं। अनंत की अनंत कोटियाँ होती हैं। संसार के अनंत जीवों में ऐसे अनंत जीव हैं, जो कर्मबद्धता के कारण संसार में भ्रमण कर रहे हैं। संसार के जीवों में अनंत ऐसे जीव हैं, जो सिद्धत्व प्राप्त कर चुके हैं। अनंत का विशेष विवेचन यथाप्रसंग किया जा चुका है। शुद्ध भाव की आराधना शुद्ध जीव का चतुर्गति-भव-संभ्रमण नहीं होता है। अर्थात् निश्चय-नय की दृष्टि से जीव मनुष्य, देव, नरक, तिर्यंच चार गतियों के भवों में परिभ्रमण नहीं करता। उसके जन्म, वृद्धावस्था उसक जन्म, वृद्धावस्था, मृत्यु, रोग, शोक, कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणास्थान नहीं हैं। शुद्ध जीव के द्रव्य-कर्म तथा भाव-कर्म का स्वीकार न होने से नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व एवं देवत्वमूलक चार गतियों का परिभ्रमण नहीं है। नित्य शुद्ध, चिदानंदरूप, कारण परमात्म-स्वरूप जीव के द्रव्य-कर्म तथा भाव-कर्म के ग्रहण के योग्य विभाव, परिणति का अभाव है, इसलिए उसके जन्म, वृद्धावस्था, मृत्यु, रुग्णता और शोक नहीं होता। कुल का तात्पर्य पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरीन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय आदि जीवों के विभिन्न कुल हैं। वे सब मिलाकर एक सौ साढ़े सत्तानवें लाख करोड़ होते हैं। शुद्ध जीव के ये नहीं होते। उसी प्रकार योनियाँ, जीव-स्थान तथा गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद आदि मार्गणा स्थान शुद्ध जीव के नहीं हैं। आत्मा निर्दड, निर्द्वन्द्व, निर्मम, निष्कलंक, निरालंब, नि:राग, निर्दोष, निर्मूढ़ और निर्भय है। मनं-दड, वचन-दंड और काय-दंड के योग्य द्रव्य-कर्म और भाव-कर्म का अभाव होने से आत्मा निर्दड या दंड रहित है। 426
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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