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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन
है। कारण में जो मूलतः विद्यमान होता है, वही कार्य में प्रगट होता है। इसलिए वह उत्पाद नहीं है, प्राकट्य है।
यही बात सिद्धत्व के संबंध में लागू होती है । आत्मा में से सिद्धत्व नाम का कोई नया पदार्थ या तत्त्व आविर्भूत नहीं होता। सिद्धत्व आत्मा के शुद्धत्य का पर्याय है। मूल स्वभाव की अपेक्षा से आत्मा सर्वथा शुद्ध बुद्ध है। इस प्रकार आत्मा में शुद्धत्व या सिद्धत्व मूल स्वभाव के रूप में विद्यमान
संबर और निर्जरामूलक साधनामय कारणों द्वारा ज्ञानावरणादि का क्षय हो जाने पर सिद्धत्व प्रगट हो जाता है। इसलिए वहाँ असत् की उत्पत्ति नहीं है। वस्तुतः सत् की अभिव्यक्ति है ।
गीता में भी यह विषय चर्चित हुआ है। कहा गया है
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।।
असत् का कभी भाव नहीं होता, अर्थात् जिसका कोई अस्तित्व नहीं है, अथवा जो विद्यमान नहीं है, उसका भाव या उत्पत्ति नहीं होती। जो सत् है, जिसका अस्तित्व है, उसका अभाव नहीं होता । | इन दोनों तत्त्वों को ज्ञानी पुरुषों ने देखा है, समझा है ।
जैसे अग्नि में ऊष्णत्व सत् है, अर्थात् ऊष्णता का अस्तित्व है। जब तक अग्नि रहेगी, तब तक ऊष्णता रहेगी। उसका अभाव नहीं होगा ।
अग्नि में शीतलता का अभाव है, जब तक अग्नि का अस्तित्व रहेगा, तब तक उसमें शीतत्त्व का | सद् भाव नहीं होगा। इसी तत्त्व का सत्कार्यवाद का सांख्य की कारिकाओं में भी विवेचन हुआ है।" सिद्ध का निरुपाधि ज्ञान, दर्शन और सुख
चैतन्यशील आत्मा जब सर्वज्ञ और सर्वलोकदर्शी हो जाती है, तब वह स्वयं अपने अमूर्त्त - निराकार, अव्याबाध- निराबाध या बाधा रहित, अनंत- अंतरहित सुख को प्राप्त कर लेती है ।
इस संसार में सब जीव अनंत अगुरु-लघु गुणों में परिणत हैं । वे असंख्यात प्रदेश- युक्त हैं । कई, कथंचित् समग्र लोक में प्राप्त या व्याप्त हैं । कई अव्याप्त हैं। बहुत से जीव अर्थात् अनंत जीव मिथ्या दर्शन, कषाय एवं योग सहित संसारी हैं और अनंत जीव मिथ्यादर्शन, कषाय-योग-रहित सिद्ध हैं । "
१. श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय-२ श्लोक-१६. ३. पंचास्तिकाय गाषा-२९, पृष्ठ: ५९.
२. सांख्यकारिका श्लोक ९.
४. पंचास्तिकाय, गाथा - ३१-३२, पृष्ठ : ६२.
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