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सिद्धत्वोपलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण
राग भी दो प्रकार का है- प्रशस्त एवं अप्रशस्त । अप्रशस्त राग से अशुभ का बंध होता है और प्रशस्त राग से शुभ का बंध होता है । शुद्ध आत्मा दोनों ही प्रकार के राग नहीं करती। इसलिए शुद्धावस्था राग-द्वेषादि भावों से अतीत होती है जब तक राग-द्वेष के भाव चलते रहते हैं, तब तक परमात्म-भाव समुदित नहीं होता ।
परमात्मभाव का अविर्भाव या उद्घाटन जब होता है तो आत्मा के साथ वीतराग विशेषण जुड़
जाता है
वीतो नष्टो रागो यस्य स वीतरागः ।
अर्थात् जिसका राग भाव सर्वथा क्षय पा लेता है, निर्मूल हो जाता है, वही वीतराग कहलाता है। वीतरागता आत्मा की शुद्धावस्था है, जिसके त्रयोदश और चतुर्दश दो गुणस्थान हैं ।
त्रयोदश गुणस्थानवर्ती महापुरुष योग की परिभाषा में जीवन्मुक्त कहे जा सकते हैं । यद्यपि जैन | दर्शन की भाषा में वे सर्वथा मुक्त तो नहीं कहे जा सकते, किंतु वे मुक्तत्व के समीप कहे जा सकते हैं। अर्थात् उनका अगला चरण मुक्तत्व में होता है। इसलिए आत्मा को जो राग-द्वेषादि का कर्ता कहा जाता है, वह व्यवहार नय है। निश्चय नय शुद्ध आत्मा को राग, द्वेष आदि विभावों का कर्ता नहीं मानता।
ज्ञानावरणादि का अभाव
सिद्धत्व का सद्भाव
ज्ञानावरणादि भाव जीव के साथ अनुबद्ध हैं, उनका क्षय कर जीव अभूतपूर्व सिद्ध हो जाता है। | अर्थात् कर्मबद्ध जीव जो अब तक कर्मों से बंधा हुआ चला आ रहा था, वह सिद्ध हो जाता है । यह सिद्ध का पूर्व भाव अभूतपूर्व है जो पहले कभी नहीं हुआ, क्योंकि पहले यदि वैसा हो जाता तो फिर कर्मों से बंधने की स्थिति भी नहीं आती ।
पुनः
दार्शनिक दृष्टि से यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सिद्धत्व की प्राप्ति असत् का उत्पाद नहीं है, क्योंकि | सिद्धत्व के रूप में कोई नया पदार्थ उत्पन्न नहीं हुआ । सिद्धत्व जो आत्मा का विशुद्ध रूप है, वह पहले भी था, किंतु ज्ञानावरणादि भावों ने उसको आवृत्त कर रखा था। ज्यों ही उन भावों का क्षय कर दिया गया, सिद्धत्व अभिव्यक्त हो गया। इस प्रकार सिद्धत्व के भाव को असत् नहीं कहा जा सकता।'
समीक्षा
दार्शनिक क्षेत्र में सत्कार्यवाद का सिद्धांत वड़ा महत्त्वपूर्ण है। उसके अनुसार कार्य का कारण में | सत् या अस्तित्व माना जाता है। अर्थात् कारण से जो कार्य उत्पन्न होता है, वह कोई नई उत्पत्ति नहीं
१. पंचास्तिकाय गाथा - २०, पृष्ठ ८१.
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