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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन.. STAALMERIES सूर्य अपने स्वाभाविक रूप में उद्योतित होने लगता है, चमकने लगता है। यहाँ वास्तविकता यह है कि सूर्य का प्रकाश तो अपने आप में ज्योतिर्मय होता है, किंतु मेघावरणों से वह ज्योतिर्मयता अदृश्य रहती है। आत्मा के साथ भी ऐसी ही स्थिति है। उसका अपना स्वरूप मूलत: जैसा है, वैसा ही रहता है, किंतु कर्म-संश्लेष के कारण उसकी अभिव्यक्ति और प्रसृति आवृत हो जाती है। आत्मा के शुद्धस्वरूप का चिंतन, ध्यान और उसमें परिणमन आत्मा को शुद्धत्व की दिशा में अग्रसर करता है। यह मोक्ष को पाने का, बद्ध आत्मा के मुक्त होने का- सिद्ध होने का- अपने परम लक्ष्य में सफल या कृतकृत्य होने का एकमात्र मार्ग है। यह पुण्य, पुण्यावस्था से अतीत है, क्योंकि ये दोनों ही अवस्थाएँ, बद्धावस्थाएँ हैं। कोई किसी को लोहे की शृंखला से बांध ले तो उसकी स्वतंत्रता मिट जाती है और कोई उसे सोने की शंखला से बद्ध कर ले तो भी उसकी स्वतंत्रता तो अपगत होती ही है। इस तत्त्व को स्वायत्त करना अध्यात्म-दर्शन है। यह केवल शब्दों के कथन मात्र से अधिगत नहीं होता। इसके लिए आत्मिक भावों में परिष्कार लाना आवश्यक है। आत्म-परिष्कार ही शुद्धोपयोग है। उसी से आत्म-विशुद्धि निष्पन्न होती है। वह निष्पन्नता जब पूर्णता पा लेती है तो साधक का लक्ष्य सिद्ध हो जाता है। वह बंधनों से छूट जाता है। वही उसका सिद्धत्व है, सिद्धावस्था है। शुद्धात्मा की अबद्धावस्था जैसे स्फटिक मणि शूद्ध होने के कारण विभिन्न रंगों में परिणत नहीं होती, किंतु अन्य लाल आदि रंगों के पदार्थों के संपर्क के कारण लाल आदि रंगों में दृष्टिगोचर होती है। इसीलिए ज्ञानी अर्थात् शुद्ध | आत्मा अपने शुद्धत्व के कारण रागादि के रूप में स्वयं परिणत नहीं होती, किंतु रागादि दोषों से संबद्ध होने के कारण वह वैसी प्रतीत होती है। ज्ञानी राग-द्वेष और मोह या कषाय-भाव को स्वयं अपनी आत्मा में नहीं आने देता, इसलिए वह वास्तव में उन भावों का कर्ता- करने वाला नहीं होता। समीक्षा शुद्ध भावापन्न आत्मा राग-द्वेषादि का कर्ता नहीं होती, क्योंकि राग-द्वेषादि भावों का संबंध अशुद्ध भावों से है। अशुद्ध आत्मा की दो कोटियाँ है- १. शुभात्मक, २. अशुभात्मक । १. समयसार, गाथा-२७८-२८०, पृष्ठ : ४११-४१४. 423
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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