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________________ सिद्धत्वोपलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण करते हैं, जो स्वयमेव ज्ञानरूप हैं, उन सर्वज्ञ प्रभु के लिए कुछ भी परोक्ष नहीं है। | आत्मा ज्ञान प्रमाण है। ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है। लोक और अलोक ज्ञेय हैं। इसलिए ज्ञान सर्वगत या सर्वव्यापी है। साधु आगम रूप चक्षुष्मान् हैं अर्थात् आगम ही उनके नेत्र हैं। सब प्राणी इंद्रिय चक्षुष्मान् हैं अर्थात् वे इंद्रियों द्वारा जानते हैं, देखते हैं। देव अवधि चक्षुष्मान् हैं, वे अवधिज्ञान द्वारा देखते हैं तथा सिद्ध सर्वत्: चक्षुष्मान् हैं, सब ओर से, सर्वात्म प्रदेशों से देखते हैं।' ___ अज्ञानी जो कर्म सैकडों, हजारों, लाखों और करोड़ों भवों में खपाता है, मन, वचन एवं काय गुप्त- मानसिक, वाचिक एवं कायिक दृष्टि से संपूर्णत: संयम के परिपालक ज्ञानी, उच्छ्वास मात्र मेंश्वास लेने में जितना समय लगता है, उतने में उन्हें खपा देता है। जिसके देह आदि के प्रति परमाणु मात्र भी मूर्छा- आसक्ति होती है, वह चाहे समस्त आगमों का धारक हो, ज्ञानी हो, फिर भी वह सिद्धत्व, मुक्तत्व प्राप्त नहीं करता। समीक्षा ___आचार्य कुंदकुंद आध्यात्म के महान् व्याख्याता थे। उन्होंने अशुभ, शुभ और शुद्धोपयोग का बड़ा ही अंत:स्पर्शी वर्णन किया है। अशुभ पापमय है और शुभ पुण्यमय है। अशुभ का फल नरक, तिर्यंच आदि कष्टपूर्ण गतियाँ है। शुभ या पुण्य का फल सुख-समृद्धिमय मानव-गति तथा देव-गति है देव-गति में भौतिक सुखों की पराकाष्ठा है, किंतु वह भी बंधनात्मक है। व्यक्ति जितना भौतिक सुखों को भोगता जाता है, नए कर्म बांधता जाता है। उनमें उसकी जिस परिमाण या मात्रा में मूर्छा- आसक्ति होती है, उसी रूप में कर्मों का बंध होता जाता है, इसलिए आध्यात्मिक दृष्टि से अशुभ की तरह शुभ भी बंधनमय है। शुद्धोपयोग अबन्धावस्था है। आचार्य कुंदकुंद ने उसकी चर्चा करते हुए बड़े ही सुंदर रूप में उसे व्याख्यात किया है कि जब आत्मा शुद्धोपयोग की दिशा में प्रवृत्त रहती है, तब वह विभावों या परभावों से हटती जाती है तथा अपने स्वभाव की ओर बढ़ती जाती है। आत्मा की परम शुद्धावस्था मुक्तता का पर्याय है। बद्धता अशुद्धावस्था है। अशुद्धावस्था कर्मों के आवरणों से आत्मा की आच्छन्नता है, तब आत्मा के स्वाभाविक गुण उसी प्रकार ढक जाते हैं, जिस प्रकार बादलों के आने पर सूर्य का प्रकाश दिखाई नहीं देता। ज्यों ही बादल दूर हो जाते हैं, वैसे ही २. प्रवचनसार, गाथा-२३४. १. प्रवचनसार, गाथा-१८-२३. ३. प्रवचन, सार-गाथा-२३८, २३९. 422
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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