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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन शुद्धोपयोग से सिद्धत्व आचार्य कुंदकुंद ने प्रवचनसार में शुद्धोपयोग का बहुत ही मार्मिक विश्लेषण किया है। शुद्धोपयोग सिद्धत्व प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होने का अनन्य साधन है। उन्होंने लिखा है धर्म से परिणत आत्मा यदि शुद्धोपयोग में युक्त हो तो वह मोक्ष-सुख को प्राप्त करती है। यदि | वह शुभोपयोग युक्त हो तो स्वर्ग के सुख को प्राप्त करती है, जो बंध रूप है। अशुभ के उदय से आत्मा निम्नकोटि के मानव, तिर्यंच और नैरयिक होकर सहस्रों दुःखों से पीड़ित | होकर संसार में भ्रमण करती है, भटकती है। ___शुद्धोपयोग से युक्त आत्माओं का, केवली और सिद्धों का सुख अतिशय- आत्म-समुत्थ या आत्मोत्पन्न होता है। जिसने अपने शुद्ध आत्मादि पदार्थों को सम्यक् जान लिया है, जो संयम और तप से युक्त है, राग से रहित है, सुख और दुःख में समान है, ऐसे श्रमण को शुद्धोपयोगी या शुद्धोपयोगवर्ती कहा गया है। जो उपयोग-विशुद्ध या शुद्धोपयोग युक्त है, वह आत्मा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अंतराय और मोहरूप कर्म-रज से रहित हो जाती है। वह अपने स्वभाव को प्राप्त कर सर्वज्ञत्व प्राप्त कर लेती है और तीनों लोकों के अधिपतियों से | पूजित होती हुई स्वयंभू- परमशुद्धावस्था प्राप्त कर लेती है। ऐसा श्री जिनेश्वर देव ने प्रतिपादित किया है। उस शुद्ध स्वभाव को प्राप्त आत्मा का विनाश-रहित उत्पाद है और उत्पाद-रहित विनाश है। उसमें स्थिति, उत्पाद और विनाश का समवाय- एकत्व विद्यमान है। अर्थात् 'उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक सत्'-- यह सिद्धांत शुद्ध-भाव को प्राप्त आत्मा में सहज रूप में घटित होता है। जिस आत्मा के घाति कर्म प्रक्षीण हो चुके हैं, जो इंद्रियातीत है, अनंतवीर्य, अनंत उत्तम बल या शक्ति-युक्त है तथा केवल ज्ञान या केवल दर्शन से युक्त है, ऐसी शुद्ध आत्मा ज्ञान और सुख रूप में परिणमन करती है। । केवल ज्ञानी के देहगत- शरीर विषयक सुख एवं दु:ख नहीं है, क्योंकि उनमें अतीन्द्रियत्व उत्पन्न है। वास्तव में ज्ञान रूप में परिणमित होते हुए केवली भगवान् के पर्याय प्रत्यक्ष तथा साक्षात् हैं। वे उन्हें अवग्रह, ईहा, अवाय तथा धारणा रूप क्रियाओं द्वारा नहीं जानते हैं। जो सदैव इंद्रियातीत हैं, जो समस्त आत्म-प्रदशों द्वारा सर्व इन्द्रिय-गुणों से युक्त हैं अर्थात् जिनके आत्म-प्रदेश इंद्रियों का काम १. प्रवचनसार, गाथा-११-१७, पृष्ठ : १७-१९. 421 STRE
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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