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________________ सत्योपलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण जीवन का चरम साध्य पूर्ववर्ती अध्यायों में सिद्ध-पद का जैनागमों, प्राकृत एवं संस्कृत ग्रंथों आदि के आधार पर बहुमुखी विश्लेषण किया गया है। सिद्धों के स्वरूप, अवस्थान, वैशिष्ट्य आदि की विस्तार से चर्चा की गई है। सिद्धत्व जीवन का परमलक्ष्य है । साधक की साधना उसकी स्वायत्तता में पर्यवसान पाती है । अन्यान्य धार्मिक परंपराएँ भी उसी प्रकार एक परम साध्य को लक्षित कर अग्रसर होती हैं। इस | संदर्भ में भारतीय धर्मों में सूक्ष्म चिंतन हुआ है। जिस प्रकार जैन धर्म में सिद्धत्व का सूक्ष्मातिसूक्ष्म । विश्लेषण प्राप्त होता है, वैदिक वाङ्मय में भी ब्रह्म पर विशद विवेचन जीवन की साधना का अन्तिम फल है । जिस प्रकार सिद्धत्व प्राप्त कर लेने पर भव-चक्र- जन्म, मरण हुआ है । उसका साक्षात्कार मिट जाता है, उसी प्रकार ब्रह्मसाक्षात्कार कर लेने पर संसार में आवागमन समाप्त हो जाता है । वह | परमशांतिमय, परमानंदमय स्थिति है । वह आनंद पदार्थेतर— निरपेक्ष सहजानंद होता है । वहाँ समस्त | दुःख निवृत्त हो जाते हैं । बौद्ध-दर्शन में उसे निर्वाण कहा है। इतना अंतर है कि अधिकांशत: बौद्ध दुःख - निवृत्ति में ही | लक्ष्य की परिपूर्णता मानते हैं । बौद्ध दर्शन में स्वीकृत महाशून्य, जो शब्दों द्वारा व्याख्यात नहीं किया जा सकता, एक ऐसी स्थिति है, जो सुख-दुःखात्मकता से अतीत है, क्योंकि सुख का अस्तित्व मान लेने पर शून्यत्व की सिद्धि नहीं होती। । उत्तरवर्ती साधनामूलक विधाओं में भी परम तत्त्व का निरूपण प्राप्त होता है। निर्गुणमार्गी संत परंपरा में कबीर, नानकदेव, दादूदयाल, दरियाव साहब आदि संतों ने उस संबंध में विशेष रूप से लिखा है, जो उनकी वाणियों में प्राप्त है। - बाह्योपचार तथा कर्मकाण्ड को साधना में अनपेक्षित मानते उन्होंने हुए और अनुभवन पर विशेष बल दिया। 'सत्-तत्त्व के अनुसंधान आनन्दघनजी आदि जैन संतों ने भी अर्हत्-भक्ति को कुछ उसी प्रकार की विधा में शब्द- बद्ध किया है। सिद्धत्व के तात्त्विक विवेचन से प्रारंभ कर विशेषत: इस अध्याय में ब्रह्म-तत्त्व तथा अन्यान्य परंपराओं में स्वीकृत परम तत्त्व का संक्षेप में परिचय कराते हुए सिद्धत्व के साथ उनका समीक्षण किया जाएगा। 420
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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