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जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना
ने वाला
निमग्न
त्मा को
प्रकाश त्त्व पर
श्लिष्ट तथा सुलीन मन
योगाभ्यासी यातायात मन को सतत् अभ्यास द्वारा स्थिर बना लेता है। इसके होने से वह आनंदमय हो जाता है, तब उसकी श्लिष्ट-संज्ञा होती है। | श्लिष्ट-चित्त में क्रमश: स्थिरता बढ़ती जाती है। वह अत्यंत स्थिर हो जाता है। अत्यधिक स्थिरता के परिणामस्वरूप उसमें परमानंद उद्योतित होता है। वह परमानंदमय बन जाता है तथा सुलीन संज्ञा पा लेता है।
निष्कर्ष यह है कि जैसे-जैसे क्रमश: स्थिरता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे आनंद की धारा वृद्धिंगत होती जाती है। अत्यंत स्थिरता परमानंद के रूप में प्रस्फुटित होती है।
अंत में ग्रंथकार लिखते हैं
योगभ्यासी साधक को क्रमश: अपना अभ्यास बढ़ाना चाहिए। विक्षिप्त से यातायात में पहुँचना चाहिए। यातायात से श्लिष्ट तथा तदनंतर उसी क्रम से सुलीन चित्त का अभ्यास करना चाहिए। वैसे अभ्यास करते रहने से निरालंबन-ध्यान सिद्ध हो जाता है, जहाँ बाह्य आलंबन की आवश्यकता नहीं रहती।
निरालंबन ध्यान से समरसता प्राप्त होती है, परमानंद की अनुभूति होती है।
ध्यान द्वारा ध्येय तत्त्व सिद्ध होता है। ध्येय तत्त्व सालम्बन (आलंबन सहित) एवं निरालंबन (आलंबन रहित) रूप से दो प्रकार का है।
पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ सालम्बन ध्यान में तथा रूपातीत निरालम्बन ध्यान में परिग्रहीत हैं।
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मझना
विशेष __आचार्य हेमचंद्र बहुत बड़े दार्शनिक और लेखक होने के साथ-साथ योग के उत्कृष्ट साधक भी थे, जो उनके स्वानुभूतिमूलक विचारों से प्रगट होता है। । योगाभ्यास का आधार मन है। मन की अवस्थाओं को भलीभाँति समझे बिना, मानसिक दृष्टि से उच्च भूमिका में पहुंचे बिना योग-साधना संभव नहीं है।
ये मन के उपर्युक्त भेद इसी के उद्बोधक हैं।
१. योगशास्त्र, प्रकाश-१२, श्लोक-१-४. ३. योग प्रयोग अयोग, पृष्ठ : २२५.
२. योगशात्र, प्रकाश-१२, श्लोक-५.
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