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________________ णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन करना चाहिए। इस प्रकार सालंबन ध्यान से निरालंबन ध्यान में जाना चाहिए। ऐसा करने वाला साधक तत्त्वविद् हो जाता है। जो योगी पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ एवं रूपातीत- इन चार प्रकार के ध्यान रूप अमृत में निमग्न हो जाता है, वह जगत के तत्त्वों का साक्षात्कार कर आत्म-विशुद्धि प्राप्त कर लेता है। आत्मा को सर्वथा शुद्ध बना लेता है। मनोजय के संदर्भ में अनुभूतिमूलक निरूपण आचार्य हेमचंद्र ने योगशास्त्र के बारहवें प्रकाश के प्रारंभ में लिखा है मैंने शास्त्र रूपी समुद्र से और सद्गुरु के मुख से जो जाना, उसका यहाँ तक- ग्यारहवें प्रकाश तक सम्यक् विवेचन किया है। अब मैं अपनी अनुभूति के आधार पर सिद्ध- निर्मल या शुद्ध तत्त्व पर प्रकाश डालूंगा। इस सूचना के पश्चात वे मन के भेदों का वर्णन करते हैं, क्योंकि योग का मुख्य आधार, केंद्र मन है। मन की अवस्थाओं को जानना और उन्हें उच्च, ऊर्ध्व स्थिति में पहुँचाना योगी के लिए आवश्यक है। अन्यथा योग सध नहीं पाता। आचार्य हेमचंद्र ने अपने अनुभव के आधार पर मन के चार भेद बताए हैं। विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट तथा सुलीन। उन्होंने कहा है कि जो मनोजय की दिशा में उद्यत हैं, उन्हें इन भेदों को समझना बहुत लाभप्रद है। विक्षिप्त एवं यातायात मन विक्षिप्त का अर्थ विचलित, अस्थिर या चंचल है। जो मन चंचलता-युक्त रहता है, भ्रमण करता रहता है, वह विक्षिप्त कहा जाता है। यातायात का अर्थ जाना और आना है। जो मन कभी बाहर जाता है तो कभी अंतश्चित होता है, वह यातायात कहा जाता है। वह कुछ आनंदमयता लिए रहता है। जो योगाभ्यास के प्रारंभिक साधक हैं, उनमें चित्त की ये दोनों स्थितियाँ विद्यमान रहती हैं। सबसे पहली अवस्था में चित्त चंचल रहता है। इससे अचंचल या स्थिर बनाने का अभ्यास करते रहने से धीरे-धीरे चंचलता के साथ कुछ-कुछ स्थिरता, अचलता आने लगती है। मन के ये दोनों भेद चैतसिक विकल्पों के साथ बाहरी पदार्थों को भी ग्रहण करते रहते हैं। १. योगशास्त्र, प्रकाश-१०, श्लोक-५,६. २. योगशास्त्र, प्रकाश-१२, श्लोक-१. 410
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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