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जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना
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४. रूपातीत-ध्यान
अमर्त्त- आकार रहित, चिदानंदमय, चैतन्य-स्वरूप, निरंजन- कर्म आदि के आवरणों से रहित, रूपवर्जित सिद्ध परमात्मा का ध्यान रूपातीत ध्यान कहा जाता है।
जो योगी निराकार, निष्कर्म सिद्ध परमात्मा का ध्यान करता है, वह ग्राह्य,-ग्राहक-भाव अथवा ध्येय और ध्याता के भाव से- विकल्प से रहित होकर तन्मयता- सिद्ध-स्वरूपमयता या सिद्धत्व प्राप्त कर लेता है।
जब ध्याता ग्राह्य-ग्राहक-भाव से अतीत होकर सिद्ध भगवान् के साथ तन्मय हो जाता है, तब कोई भी आलंबन बाकी नहीं रहता। वह सिद्ध परमात्मा में इस प्रकार लीन हो जाता है कि ध्याता और ध्यान- दोनों विकल्प विलुप्त हो जाते हैं और ध्येय या सिद्ध स्वरूप के साथ उसकी एकरूपता घटित हो जाती है।
आत्मा अभिन्न होकर, एकरूप होकर परमात्म-स्वरूप में लीन हो जाती है। ध्याता और ध्येय का इस प्रकार एकरूपता पाना समरसी भाव कहलाता है।
मनोनुशासनम् में आचार्य तुलसी ने इन चारों ध्यानों का संक्षेप में विवेचन किया है। यहाँ स्थूल और सूक्ष्म शरीर की संवेदनाओं की क्रियाओं तथा मानसिक वृत्तियों की ओर जो संकेत करता है, वह साधक के लिए वास्तव में प्रेरणाप्रद है।
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___ रूपातीत ध्यान, ध्यान-साधना का परकाष्ठामय रूप है। जब ध्यान-योगी तन्मयतापूर्वक सिद्ध भगवान् के स्वरूप का चिंतन करता है और जब वह चिंतन परिपक्व हो जाता है, तब ध्याता, ध्येय और ध्यान का विकल्प और भेद मिट जाता है। इन तीनों में एक अविच्छन्न सातत्यपूर्ण एकरूपता की अनुभूति होने लगती है। वह आत्मा के सच्चे आध्यात्मिक आनंद एवं समरसी भाव की स्थिति है।
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___ साधक को पहले आलंबन सहित पिंडस्थ, पदस्थ आदि लक्ष्य-युक्त ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। पहले स्थूल ध्येयों का चिंतन करना चाहिए, फिर क्रमश: सूक्ष्म तथा सूक्ष्मतर ध्येयों का चिंतन
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१. (क) योगशास्त्र, प्रकाश-१०, श्लोक-१-४.
(ख) पंचपरमेष्ठि मंत्रराज ध्यानमाला तथा अध्यात्मसार माला, पृष्ठ : २१७. २. मनोनुशासनम्, पृष्ठ : १०८.
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