SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 449
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन शुक्ल-ध्यान : उत्कर्ष : भेद जैन शास्त्रों में ध्यान के चार भेद हैं- आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । आर्त्त एवं रौद्र त्याज्य हैं, वे अशुभ और संसार-वर्धक हैं। जो वस्तु के यथार्थ स्वरूप को नहीं जानते, जो राग, द्वेष और मोह से पीड़ित होते हैं, उन जीवों की ध्यानगत स्वच्छन्द प्रवृत्ति अप्रशस्त है। धर्म और शुक्ल ग्राह्य हैं। धर्म-ध्यान स्वर्ग का कारण है, मोक्ष की ओर साधक को अग्रसर करता है। शुक्ल-ध्यान मोक्ष का अद्वितीय हेतु है। ___ “शुक्ल-ध्यान, ध्यान की सर्वोच्च निर्मल दशा है। जो चिन्तन आठ प्रकार के कर्म-मल को दूर करता है और आत्मा को शुद्ध व पवित्र बनाता है, वह शुक्ल-ध्यान है। शुक्ल-ध्यान सीधे सिद्ध गति में ले जाता है।" शुक्ल-ध्यान वज्रऋषभनाराच संहनन-युक्त तथा पूर्वश्रुत के धारक मुनि ही करने में सक्षम होते हैं। अल्प सामर्थ्य वाले मनुष्य को यह संभव नहीं है।' शास्त्रों में शुक्ल-ध्यान के चार भेद हुए हैं१. पृथक्त्व-श्रुत-सविचार २. एकत्व-श्रुत-अविचार ३. सूक्ष्म-क्रिया-अप्रतिपाति ४. समुच्छिन्न-क्रिया-अप्रतिपाति । १. पृथक्त्व-श्रुत-सविचार परमाणु आदि किसी एक द्रव्य में उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य आदि पर्यायों का द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक आदि नयों के अनुसार पूर्वगत श्रुत के आधार पर चिंतन करना, ध्यान करना पृथक्त्व-श्रुत-सविचार कहा जाता है। ध्याता इस ध्यान में कभी अर्थ का चिंतन करते-करते शब्द का चिंतन करने लगता है। कभी शब्द का चिंतन करते-करते अर्थ का चिंतन करने लगता है। । इसी प्रकार मन के योग से काय के योग में या वचन के योग में, काय के योग से मन के योग में या वचन के योग में एवं वचन के योग से मन के योग में या काय के योगों में संक्रमण करता रहता है। यद्यपि संक्रमण तो भिन्न रूप में होता है, किंतु ध्येय पदार्थ एक ही होता है। १. जैन ज्ञानकोश भाग-१, पृष्ठ : १३०. २. जैन ज्ञान कोश, भाग-४, पृष्ठ : २६०. ३. अभिधानराजेन्द्रकोश में, जैनदर्शन वाटिका, पृष्ठ : २२६. ४. योगशास्त्र, प्रकाश-११, श्लोक-१,२. ५. योगशास्त्र, प्रकाश-११, श्लोक-५. ६. योगशास्त्र, प्रकाश-११, श्लोक-६. 412
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy