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णमो सिध्दाणं पंद । समीक्षात्मक परिशीलन ।
अग्निपुर- अग्निरूप नगर का चिंतन करना चाहिए। तत्पश्चात अपने चिंतन को इस रूप में अग्रसर करे कि शरीर के भीतर 'अहं' महामंत्र के ध्यान से उत्पन्न ज्वाला से तथा शरीर के बहिर्वर्ती अग्निरूप नगर की ज्वाला से अष्ट कर्मांकित कमल को और देह को जलाकर अग्नि भस्म के रूप में परिणत होकर शान्त हो गई है।
३. वायवी धारणा
आग्नेयी धारणा के पश्चात् योगी यह कल्पना करे कि ऐसा प्रचंड वायु चल रहा है, जो तीनों लोक में परिव्याप्त है, जिससे पर्वत विचलित हो रहे हैं। समुद्र क्षुब्ध हो रहा है। फिर अपनी भावना के अनुचिंतन को आगे बढ़ाए कि जो आग्नेयी धारणा में शरीर और कर्म की राख हुई थी, वह वायु से बिखर रही है। दृढ़ता से इसका चिंतन करे। यह वायवी धारणा है।
४. वारुणी धारणा
योगी ऐसा चिंतन करे कि आकाश में ऐसे बादल छाए हैं, जो अमत के समान वर्षा कर रहे हैं। फिर वह अर्ध चंद्रमा के आकार से युक्त 'ब' का चिंतन करे, जो वरुण-बीज माना गया है। ऐसा सोचे, इस वरुण बीज से उत्पन्न हो रहे, निकल रहे अमृतोपम जल से गगन-मंडल भर गया है। भूमि से आकाश तक जल ही जल परिव्याप्त है।
पहले वायवी धारणा के अंतर्गत जैसा बतलाया गया है, देह और कर्म के जलने के बाद बनी हुई भस्म प्रचण्ड वायु द्वारा विकीर्ण कर दी गई है, जो एक ही स्थान पर पूंजीभूत थी। इन जलधाराओं से वह भस्म धुलकर साफ हो रही है और बही जा रही है। यह वारुणी धारणा है।
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Sorts
विशेष | आग्नेयी से वारुणी धारणा तक कर्म-नाश का जो क्रम ग्रंथकार ने प्रतिपादित किया है, वह बहुत
ही युक्तिसंगत और उद्बोधक है। कर्म रूप इंधन को उत्कृष्ट भाव रूप तपश्चरण ने जला तो डाला, | फिर भी कुछ मलिनता बची रह जाती है, जिसे भस्म या राख के रूप में अभिहित किया गया है। रास्ते से निकले हुए साँप की लकीर की तरह चिह्नांकन अवशेष रहता है अर्थात् संस्कार रूप में कुछ मालिन्य बचा रहता है। वायु द्वारा उसे बिखेर दिए जाने पर उस भस्म का पुंजत्व तो मिट जाता है, किन्तु कण-कण के रूप में दिशा-मंडल में वह व्याप्त रहती है। जल धारा द्वारा प्रक्षालित होने पर निर्मल, समुज्ज्वल आत्मस्वरूप के अतिरिक्त कुछ नहीं रहता।
२. योगशास्त्र, प्रकाश-७, श्लोक-१९,२०.
१. योगशास्त्र, प्रकाश-७, श्लोक १३-१७. ३. योगशास्त्र, प्रकाश-७, श्लोक-२१,२२.
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SOMINAR
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