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________________ जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना हैं। योगशास्त्र में इन धारणाओं का बहुत स्पष्ट और सुंदर विवेचन किया गया है, जिसे यहाँ संक्षेप में उपस्थित किया जा रहा है। १. पार्थिवी धारणा जिस पृथ्वी पर प्राणी रहते है, जैन परिभाषा में उसे तिर्यक्-लोक या मध्यलोक कहा जाता है। साधक मन में ऐसी भावना या विचारणा करे कि इस मध्यलोक के बराबर लंबा चौड़ा क्षीरसागर लहरा रहा है। उस क्षीरसागर में जंबूद्वीप के सदृश एक कमल है, जो एक लक्ष योजन परिमाण का है। उस कमल के एक हजार पंखुड़ियाँ हैं। उसके बीच में किंजल्क- केसर है। उसके भीतर से समुत्थित एक लाख योजन मेरू पर्वत-प्रमाण कर्णिका है, जो स्वर्ण जैसी पीली प्रभा से देदीप्यमान है। उस कर्णिका के ऊपर श्वेत वर्ण-युक्त एक सिंहासन है। साधक आगे अपनी भावना को इस प्रकार बढ़ाए कि उस सिंहासन पर आसीन होकर मैं अपने कर्मों का समूल उछेदन करने हेतु उद्यत हूँ। यह पार्थिवी धारणा है। इस धारणा या भावना के सहारे साधक अपने आप में कर्म-जंजाल को ध्वस्त करने का एक विशेष उत्साह प्राप्त करता है, क्योंकि उत्साह ही तो उद्यम का मूल है।' २. आग्नेयी धारणा - अग्नि पाँच तत्त्वों में एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। ज्वलन, पाचन आदि उसके कार्य हैं। साधक ऐसी |भावना परिकल्पित करे कि उसकी नाभि के भीतर एक कमल है, उसके सोलह पंखुड़ियाँ है। वह उस कमल की कर्णिका पर 'अर्ह महामंत्र को स्थापित करे। उसकी प्रत्येक पंखुड़ी पर क्रमश: सोलह स्वर- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लु, लु, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: - अंकित हैं, ऐसी कल्पना करे। ऐसा करने के अनंतर वह पुन: यह भावना करे कि उसके हृदय में एक कमल है। उसके आठ पंखुड़ियाँ हैं। उन आठों में से प्रत्येक पंखुड़ी पर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र एवं अंतराय- इन आठ कर्मों की स्थापना या परिकल्पना करे, फिर ऐसी धारणा करे कि उस कमल का मुख नीचे की ओर है। आगे चिंतन करे कि रेफ-बिंदु और कला से युक्त 'अर्ह महामंत्र के 'है' से मंद-मंद धुएँ की शिखा निकल रही है। उसमें से अग्नि की चिनगारियाँ निकल रहीं हैं। वे अनेक ज्वालाओं में अग्नि की लपटों में परिवर्तित हो रही हैं। उन ज्वालाओं से पूर्वोक्त हृदय-स्थित्त आठ पंखुड़ियों वाला कमल दग्ध हो रहा है। महामंत्र 'अर्ह के ध्यान से उत्पन्न अग्नि की ज्वालाएं उस कमल को जला रही हैं, ऐसा चिंतन करे। साथ ही साथ शरीर से बाहर तीन कोनों से युक्त स्वस्तिक सहित अग्नि-बीज-स्वरूप रेफ समन्वित, जाज्वल्यमान १. योगशास्त्र, प्रकाश-७, श्लोक-१०-१२. 405
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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