SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना । अग्रसर अग्निरूप त होकर ५. तत्त्वभू धारणा यह धारणा रस, रक्त, मांस, मेदा, मज्जा, अस्थि और शुक्र रूप सात धातुओं से रहित, दैहिक उपादानों से सर्वथा विवर्जित पूनम के चाँद के समान विमल, उज्ज्वल कांति-युक्त, सर्वज्ञवत् विशुद्ध आत्म-स्वरूप के चिंतन पर अवलंबित है। नों लोक विना के वायु से साधक यों भावानुभावित हो कि शरीर के भीतर एक सिंहासन विद्यमान है। समग्न अतिशयों से विलक्षण, विशेषताओं से अलंकृत, समस्त कर्म-विध्वंसक, उत्तम महिमा-मंडित अमूर्त आत्मा स्थित है। यह भावना आत्मरूप परमतत्व पर टिकी हुई है। इसलिए इसे 'तत्वाद् भवति' के अनुसार 'तत्त्व-भू' के नाम से अभिहित किया है। इन धारणाओं का वर्णन करने के पश्चात आचार्य हेमचंद्र ने इनका फल बताते हुए लौकिक संकटों के टल जाने की बात कही है। रहे हैं। । सोचे, भूमि से अनुचिन्तन आचार्य ने जो ऐसा प्रतिपादित किया है, उसका तात्पर्य यह नहीं समझना चाहिए कि इन धारणाओं के अभ्यास से कष्ट आदि निवृत्त होते हैं। ये तो उनके औपचारिक फल हैं। वास्तव में तो इन भावनाओं का फल ध्यान-सिद्धि है, जिसकी परिणति समाधि में होती है। नी 'बहुत डाला, पदस्थ-ध्यान पवित्र मंत्राक्षर आदि पदों का अवलंबन लेकर जो ध्यान किया जाता है, उसे पदस्थ-ध्यान कहा जाता है। योगशास्त्र में उसकी कई विधाओं का वर्णन है। यहाँ उदाहरण के रूप में एक को उपस्थित किया जाता है। साधक को चाहिए कि वह अपने नाभि-कंद पर सोलह पत्रों वाले कमल की कल्पना करे। प्रत्येक पत्र पर अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ल, लु, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:- इन सोलह स्वरों को अंकित | करे और यह कल्पना करे कि उनकी यह पंक्ति भ्रमण कर रही है। | हृदय में चौबीस पत्रों वाले, कर्णिका-युक्त कमल की कल्पना करे। उस पर क्रमश: क, ख, ग, घ, ड., च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म- इनमें से क से भ तक के चौबीस व्यंजनों को कमल के चौबीस पत्रों पर और म को कर्णिका पर स्थापित कर चिंतन करे। लिन्य किन्तु नर्मल, १. योगशास्त्र, प्रकाश-७, श्लोक-२३-२५. २. योगशास्त्र, प्रकाश-७, श्लोक-२६-२८. 407
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy