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णमोक्कार का 'णमो सिद्धाणं' पद इसी भाव का उज्जीवक है।
| ध्यान का विश्लेषण
“ ध्यान की परंपरा बहुत प्राचीन है । उसका आदि स्रोत खोजना बहुत कठिन है । यह प्राग्- ऐतिहासिक है ।"" “वास्तव में ध्यान की साधना ही एक ऐसी साधना है, जिसके विषय में विवाद को कोई स्थान, अवकाश ही नहीं रहता है। हाँ, ध्यान की विधियों अथवा पद्धतियों के संबन्ध में अवश्य मतभेद रहे हैं। उन्हें रोका अथवा मिटाया भी नहीं जा सकता है। चूँकि हजारों लाखों साधक जब ध्यान| साधना की प्रक्रियाओं से गुजरते हैं तो सबके अपने-अपने अनुभव होते हैं।
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जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना
“ आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से होवें तो ध्यान साधना का अर्थ पर में अटकती चित्तवृत्तियों को समेटकर स्व में स्थिर करने का सघन प्रयास करना है। स्व में रहना ही मुक्ति है, तथा बाह्य के पीछे दौड़ना ही संसार है।
"स्वानुभूति की उपलब्धि का उपाय है- ध्यान आत्मा और शरीर की भिन्नता के ज्ञान का उपाय हे कायोत्सर्ग ममत्व, विषय और कषाय के बन्धन से मुक्त होने का उपाय भी है- ध्यान और कायोत्सर्ग का समन्वय ।"
"ध्यान करने वाली अन्तरात्मा ध्याता है, जिन्होंने अरिहंत सिद्ध का शुद्ध परमात्मस्वरूप प्राप्त कर लिया है, जिनका ध्यान किया जाता है, वे ध्येय कहे जाते हैं। ध्याता और ध्येय को एक साथ जोड़ने वाली क्रिया ध्यान है । जिन साधकों के ये तीनों ऐक्य पा लेते हैं, उनके कोई दुःख रहता ही नहीं । ""
"ध्यान से व्यक्ति विनम्र हो जाता है, ध्यान व्यक्ति को स्वकेन्द्रित मन-मानस से विमुक्त करता है वह अन्य व्यक्तियों के हित के बारे में भी सोचने लगता है। उसमें स्वार्थ अभिमान व दीनता का धीरे-धीरे अभाव होता जाता है और मैत्री, स्वाभिमान और विनम्रता झलकने लगते हैं। ध्यान की नियमित साधना, चिन्तन और व्यवहार की दूरी सदा के लिए समाप्त कर देती है ।" "
योगशास्त्र में ध्यान
आचार्य हेमचंद्र ने योगशास्त्र के सातवें अध्याय में ध्यान का विवेचन किया है। उन्होंने लिखा है कि जो ध्यान-साधना करने की इच्छा रखता हो वैसे साधक को तीन बातें जानना आवश्यक है
१. भेद में छिपा अभेद, अध्याय-१२, पृष्ठ १५.
३. साधनानु हृदय, पृष्ठ ११९.
५. ज्ञानसार, पृष्ठ २१८.
२. समीक्षण ध्यान एक मनोविज्ञान, पृष्ठ १, २.
४. अस्तित्त्व का मूल्यांकन, पृष्ठ : ३४३.
६. ध्यान : एक दिव्य साधना, पृष्ठ : १४.
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