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________________ HTTER ETES So णमो सिध्दार्ण पद : समीक्षात्मक परिशीलन n amoonawanS PARAMES IONARY RAHARASHTRA d uDRAMA S IRESEAR Jeleasin सत्-तत्त्व में पक्षपात, रुचि, स्पृहा या उत्कण्ठा का बहुत बड़ा फल होता है, क्योंकि इनके कारण जीवन में सत्परायणता आती है। सत्परायणता से सच्चारित्र की उन्नति होती है तथा आत्मस्वरूप की प्राप्ति होती है। भावरहित या अज्ञानपूर्ण क्रिया दीर्घकाल तक की जाए तो भी उससे आत्मसिद्धि प्राप्त नहीं होती, क्योंकि वह क्रिया यथार्थ लक्ष्य की ओर नहीं जाती। सही मार्ग प्राप्त किए बिना यदि कोई अनंतकाल तक भी क्रियाशील, गतिशील रहे तो भी आत्मकल्याणमूलक लक्ष्य प्राप्त नहीं होता। इसलिए यदि कोई ऐसा माने कि क्रिया करते-करते वह स्वयं ही परमश्रेयस् को प्राप्त करेगा तो यह सर्वथा असंभव है। सत्-तत्त्व में अभिरुचि तथा आस्था के बिना आत्मा का अभ्युदय संभव नहीं है। FouTREATNA | सत्-तत्त्वाभिरुचि का वैशिष्ट्य खद्योत का प्रकाश अत्यंत अल्प होता है, नश्वर होता है। सूर्य का आलोक विराट्, असीम और अविनश्वर होता है। सत्-तत्त्वाभिरुचि या तात्त्विक पक्षपात गुणवत्ता की दृष्टि से सूर्य के आलोक की तरह अत्यंत विशाल एवं सुस्थिर है। भावशून्य क्रिया खद्योत की चमक की ज्यों अस्थिर एवं नश्वर होती है। स सहजाभिरुचि ___ग्रंथकार अंत में लिखते हैं कि कुलयोगियों तथा प्रवृत्तचक्र-योगियों जैसे योग्य पुरुषों को इस शास्त्र के श्रवण का अनुरोध करना योग्य नहीं है, कयोंकि वे तो कल्याण-सत्त्व हैं, अवश्य ही कल्याण प्राप्त करने वाले हैं। वैसे योग्य पुरुषों में तो शुश्रूषा- श्रवणेच्छा आदि गुण स्वाभाविक ही होते हैं। वे श्रवण में तथा उससे प्राप्त होने वाले साधनात्मक परम मूल्यवान् रत्न में स्वयं ही अभिरुचिशील और प्राप्त करने में प्रयत्नशील होते हैं। अत: इस ग्रंथ के श्रवण में वे तो सहज ही प्रवृत्त होंगे। विमर्श आचार्य हरिभद्र को ऐसा आत्मविश्वास था कि कुलयोगी और प्रवृत्तचक्र-योगी तो स्वयं ही उनके ग्रंथ का अध्ययन करेंगे। उन्हें ऐसा करने का अनुरोध करने की क्या आवश्यकता हैं ? उपर्युक्त परंपरानुसार अध्यात्मयोगी साधना द्वारा अंत में परादृष्टि प्राप्त कर लेते हैं तथा समस्त बंधनों से, कर्मावरणों से रहित होकर अंतरात्मभाव से परमात्मभाव में पहुँच जाते हैं। परमसिद्धि का लाभ प्राप्त करते हैं। जगत् में वही सर्वोत्कृष्ट, सर्वोत्तम, परमपद है। अत एव वह वंदनीय और नमस्करणीय है। १. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-२२४. २. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-२२५. 402 SE P ISARKABLE ARMER
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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