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________________ #1 वह रूप पेन कार शि और है। रूप व उसे सी है। तोर E सा ने 一 जैन योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना | पर प्रकंपित और विचलित नहीं होता। ऐसा होने से उसके व्यक्तित्व में सौम्यता, कांतता एवं प्रियता का समावेश हो जाता है। सबके मन में उसके प्रति कांत या प्रियभाव समुदित होता है । योगी का व्यक्तित्व उत्तरोत्तर आध्यात्मिक प्रभा से विभासिल होता जाता है। कर्मों के आवरण | हटते जाते हैं। वह क्षपक श्रेणी प्राप्त कर लेता है । लोभ, मोह आदि को क्षीण करता जाता है । आध्यात्मिक यात्रा की अंतिम मंजिल निकट आने लगती है । उसके साधना- प्रवण जीवन में एक दिव्यता आ जाती है। परादृष्टि में साधक आध्यात्मिक विकास की पूर्णता प्राप्त कर लेता है। परभावों से विमुक्त हो जाता है। कर्मावरण से सर्वथा छूट जाता है । आत्म-स्वभाव की अखंड ज्योति जगमगा उठती है । समस्त दुःख मिट जाते हैं। परमानंद अवस्था या ब्रह्मानंद अवस्था प्राप्त हो जाती है। यह जीवन की | परमसिद्धि है, सर्वोत्तम सफलता है, मुक्तत्व है, सिद्धत्व है । वहाँ णमोक्कार मंत्र का 'णमो सिद्धाणं पद' सर्वथा क्रियान्वित हो जाता है । आचार्य हरिभद्र सूरि द्वारा निरूपित, अंततः सिद्धत्व प्राप्त कराने वाला यह साधना - मार्ग बड़ा वैज्ञानिक और विलक्षण है। यह सर्वथा मौलिक और नवीन है, साथ ही साथ श्रमण भगवान् महावीर है । द्वारा दिए गए सद्ज्ञान के सर्वथा अनुरूप जिज्ञासुओं, अध्येताओं तथा अनुसंधाताओं का ध्यान इस ओर जाए, इस दिशा में वे और अधिक अध्ययन, अनुशीलन करें, अत एव एक स्वतंत्र अध्याय के रूप में इसे समाविष्ट किया गया है। जैसा ऊपर सूचित किया गया है, आचार्य हरिभद्र सूरि ने आध्यात्म योग पर चार ग्रंथों की रचना की। इन चारों में ही उन्होंने आध्यात्मिक साधना की सुगम, हृद्य और आकर्षक पद्धतियों का विवेचन किया है। यहाँ योगबिंशिका में निरूपित पथ पर संक्षेप में प्रकाश डालना अपेक्षित है। योगविंशिका में योग का विवेचन योगविंशिका में प्राकृत की केवल बीस गाथाएं हैं, किंतु इस छोटे से कलेवर में रचनाकार ने जो तथ्य प्रस्तुत किए हैं, वे बहुत ही प्रेरक हैं। उन्होंने योग की परिभाषा करते हुए लिखा है- 'मोक्खेण जोयणाओ जोगो' अर्थात् जो मोक्ष से जोड़ता है, वह योग है । उनके कहने का अभिप्राय यह है कि आध्यात्मिक साधना का जो मार्ग साधक को मोक्षात्मक 395
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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