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________________ णमो सिद्धाणं पद समीक्षात्मक परिशीलन कायिक प्रवृत्तियों के अभाव द्वारा अयोगावस्था, जो योग की सर्वोत्तमदशा है, प्राप्त कर लेते हैं । भव-व्याधि का विनाशकर परम निर्वाण या सिद्धत्व प्राप्त कर लेते हैं । | मुक्त तत्त्व-मीमांसा - जैसे इस जगत् में कोई पुरुष रोग मुक्त होता है, छूट जाता है, वैसे ही कर्म मुक्त पुरुष है। वह अभावरूप नहीं है, सद्भावरूप है । वह व्याधि से मुक्त नहीं हुआ, ऐसा नहीं है । वह भवरूप | व्याधि से मुक्त हुआ है। वह भवरूप व्याधि से युक्त नहीं था, ऐसा नहीं है, क्योंकि वह निर्वाण प्राप्ति के पूर्व भव-व्याधि से युक्त था। यह संसार ही घोर एवं भयानक व्याधि है। वह जन्म-मरण के विकार | से परिपूर्ण है। विविध प्रकार का मोह पैदा करती है। वह तीव्र राग, द्वेष आदि की वेदना या संक्लेश से युक्त है। वह व्याधि आत्मा की मुख्य व्याधि है, कोई काल्पनिक नहीं है। अनादिकाल से चले आते | तरह-तरह के कर्मों के कारण वह उत्पन्न होती है । सभी प्राणियों को उसका अनुभव होता है । / उस भव-व्याधि से जो पुरुष मुक्त हो जाता है, उसके जन्म-मृत्यु आदि दोष मिट जाते हैं और सर्वथा दोष रहित होकर वह पारमार्थिक सद्रूप मुख्य, प्रधान या परमोत्तम हो जाता है। भव-व्याधि, जो संसारावस्था में मुख्य थी, उसे मिटा देने के कारण परम पुरुष संपूर्ण स्वत्व प्राप्ति रूप मुख्यत्व पा लेता है । अपने स्वभाव के उपमर्द से अथवा विभाव, परभाव के आक्रमण से स्वभाव के आवृत होने के कारण संसार में रमण करती हुई आत्मा का जब योग साधना द्वारा पुनः अपने स्वभाव से योग होता है तो विभाव का आवरण हट जाता है, उसका शुद्ध स्वरूप उद्भासित हो जाता है, उसे सर्वथा निर्दोष अवस्था प्राप्त हो जाती है। पर्य्यवगाहन 1 आचार्य हरिभद्र के अनुसार मित्रादृष्टि से आध्यात्मिक यात्रा का प्रारंभ होता है । योगाभ्यासी साधक एक यात्री है। मित्रादृष्टि में वह उत्थान या जागरण की पहली रश्मि का संस्पर्श करता है। तारादृष्टि में बोधज्योति में कुछ विशदता आ जाती है। बलादृष्टि में साधक की शक्ति कुछ जोर पकड़ती है और वह विभाव या मिथ्याभाव से छूटने के लिए अपनी शक्ति लगता है। आगे दीप्रादृष्टि में उसकी शक्ति उद्दीप्त होती है, दुलर्भबोधि या सम्यक् बोधि उसे प्राप्त हो जाती है, जो एक ऐसा आध्यात्मिक दिव्यरत्न है, जिसके प्राप्त होने पर निःसंदेह भव-परंपरा टूटने लगती है । आगे की चार दृष्टियाँ उत्तरोत्तर उसे आत्माभ्युदय से जोड़ती जाती है। स्थिरा दृष्टि में वह योगी अपने संकल्प और कर्म में स्थिर हो जाता है। किसी भी बाधा के आने १. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक १८६. २. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक १८७-१९१. 394 पर ह अ वि BF PR
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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