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जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना
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धारणा, ध्यान और समाधि जब ये तीनों किसी एक ध्येय में होते हैं, तब उसे संयम कहा जाता है। परादृष्टि की विशेषताएं
यह दृष्टि आत्म-विकास की अंतिम पराकाष्ठा है। साधक शुभ-भाव से आगे बढ़ कर शुद्ध भावात्मक स्थिति में आ जाता है। वह चंद्रमा की तरह निर्मल हो जाता है।
विज्ञान- आत्मा का स्व-पर प्रकाशक विशिष्ट ज्ञान, चंद्र-ज्योत्स्ना के सदृश है तथा ज्ञानावरणादि कर्म मेघ के तुल्य हैं, जो शुद्ध आत्मा को आवृत्त करते हैं अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अंतराय- ये चार घाति कर्म आत्मा के मूल गुणों का घात या नाश करने वाले या उनको ढकने वाले बादलों के सदश हैं। जब वे योग-साधना रूपी वायु से आहत होकर हट जाते हैं, तब साधक सर्वज्ञत्व पा लेता है।
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अज्ञान, निद्रा, मिथ्यात्व, हास्य, रति, अरति, शोक, दुगुंछा, भय, राग, द्वेष, अविरति, काम-वासना, दानांतराय, लाभांतराय, वीर्यांतराय, भोगांतराय एवं उपभोगांतराय- इन अठारह दोषों का क्षय हो जाना, सर्वज्ञत्व-प्राप्ति का हेत है।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि चार घाति कर्मों में एक अंतराय है। उसके क्षीण हो जाने पर अनंत दानलब्धि, अनंत लाभलब्धि, अनंत भोगलब्धि, अनंत उपभोगलब्धि तथा अनंत वीर्यलब्धि प्राप्त हो जाती है। इन लब्धियों की प्राप्ति आत्मा के क्षायिक भाव से होती है, औदायिक भाव से नहीं। शुद्धभाव युक्त आत्मा या परम पुरुष इन लब्धियों का भौतिक दृष्टि से प्रयोग नहीं करते । ये लब्धियाँ |आत्म-स्वभाव से उत्पन्न हैं। इसलिए आत्मा के शुद्ध-स्वरूप में, परमानंद-भाव में, बहुमुखी आत्मपरिणमन | रूप में इनका उपयोग है। ये सर्वथा आध्यात्मिक होती हैं।
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परम निर्वाण : सिद्धत्व-प्राप्ति
उच्चतम अवस्था प्राप्त समस्त लब्धि-युक्त वीतराग प्रभु अपने शेष चार अघाति कर्मों के उदय के अनुसार इस भूमंडल पर विचरण करते हैं। जन-जन का परम कल्याण संपादित करते हैं। सांसारिक ताप से संतप्त लोगों को आध्यात्मिक शांति प्रदान करते हैं। प्राणी मात्र का महान् उपकार करते हैं। ___ अंत में वे योग की चरम पराकाष्ठा- शैलेशी-अवस्था प्राप्त कर लेते हैं। मानसिक, वाचिक एवं १. योगसूत्र, विभूतिपाद, सूत्र-४.
२. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-१८४, १८५.
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