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णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
| प्रवृत्ति जो आध्यात्मिक स्वस्थता में बाधक होती है, वहाँ उत्पन्न नहीं होती । तत्त्व मीमांसा का भाव विशेष रूप से वृद्धि प्राप्त करता है। इस दृष्टि से विद्यमान साधक ध्यान जनित आत्म सुख का अनुभव करता है।
शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि विषयों को वह जीत लेता है । साधक में प्रशांत-भाव की प्रधानता होती है ।
योगसूत्र में ध्यान
महर्षि पतंजलि ध्यान का लक्षण बताते हुए लिखते हैं- जहाँ चित्त को लगाया जाय, उसी में प्रत्ययैकतानता वृत्ति का एक तार की तरह निरंतर चलते रहना ध्यान है अर्थात् जिस ध्येय वस्तु में चित्त को लगाया जाए, उसी में उसे एकाग्र करना, केवल ध्येय मात्र की एक ही प्रकार की वृत्ति का प्रवाह चलना, उसके मध्य किसी भी प्रकार की अन्य प्रवृत्ति का न उठना ध्यान है ।
८. परादृष्टि
यह अंतिम दृष्टि है, जिसमें समाधिनिष्ठता प्राप्त होती है। यहाँ योग का आठवाँ अंग 'समाधि' सिद्ध हो जाती है । इस दृष्टि में शुद्ध आत्म-तत्त्व, आत्म-स्वरूप जिस प्रकार अनुभूति में आए, ऐसी प्रवृत्ति सहजतया गतिशील रहती है। इसमें चित्त उत्तीर्णाशय हो जाता है। अर्थात् प्रवृत्ति से ऊँचा उठ जाता है। चित्त में प्रवृत्ति करने की कोई वासना नहीं रहती।
वह 'निराचार' पद - युक्त होता है । अर्थात् वहाँ किसी आचार का प्रयोजन नहीं रहता । सहजता आ जाती है। वह अतिचारों से रहित होता है। अर्थात् वहाँ कोई दोष नहीं लगता जैसे कोई व्यक्ति पहुँचने योग्य मंजिल पर जब पहुँच चुकता है तो उसे और आगे चलने की आवश्यक्त नहीं रहती, वैसी ही स्थिति यहाँ योगी की हो जाती है।
योगसूत्र में समाधि
ध्यान करते-करते जब चित्त ध्येय के आकार में परिणत हो जाता है, उसके अपने स्वरूप का अभाव हो जाता है, उसको ध्येय से भिन्न उपलब्धि- अनुभूति नहीं रहती, उस समय वह ध्यान, समाधि कहलाता है । *
१. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक १७०, १७१. ३. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक - १७८, १७९.
२ योगसूत्र, विभूतिपाद, सूत्र - २.
४. योगसूत्र, विभूतिपाद, सूत्र - ३.
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