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- णमो सिध्दाणं पद: समीक्षात्मक परिशीलन ।
अंतिम साध्य तक पहुँचाता है, वह योग है। योग की सार्थकता साधक को समस्त कर्मों से मुक्त कराने में, परमात्म-भाव प्राप्त कराने में है।
वे सभी प्रकार के विशुद्ध धर्म-व्यापार को, धार्मिक उपक्रमों या क्रिया-कलापों को योग कहते हैं। यहाँ उनका आशय स्थान, आसन आदि से संबद्ध साधना के अभ्यास-क्रम से है।
योगविंशिका में स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलंबन तथा अनालंबन- योग के ये पाँच भेद बतलाए गए हैं। इनमें पूर्ववर्ती दो- 'स्थान' और 'ऊर्ण'- कर्मयोग कहलाते हैं तथा उत्तरवर्ती तीन 'अर्थ', 'आलंबन', 'अनालंबन'- ज्ञानयोग कहे जाते हैं।
अलक्ष्य को साधन हेतु साधक लक्ष्य का अवलम्बन लेता है। वह सालम्बन-आलम्बन-युक्त ध्यान है। आलम्बन द्वारा ध्येय में उपयोग की एकता सिद्ध होती है।
विमर्श __ जैसा पहले वर्णित हुआ है, जैन योग विषयक ग्रंथों में स्थान शब्द आसन के अर्थ में प्रयुक्त है। यहाँ भी आचार्य हरिभद्र सूरि ने स्थान का प्रयोग उसी अर्थ में किया है। उदाहरणार्थ पद्मासन, सुखासन, पर्यंकासन, कायोत्सर्ग आदि स्थान में ही समाविष्ट होते हैं।
योगाभ्यास के परिप्रेक्ष्य में प्रत्येक क्रिया के साथ जो सूत्रों का- संक्षिप्त शास्त्र-दर्शित शब्दों का उच्चारण किया जाता है, उसे 'ऊर्ण' कहा जाता है। ऊर्ण का अर्थ ऊन या ऊन का धागा है। जिस प्रकार वह बहुत सूक्ष्म या बारीक होता है, उसी प्रकार जहाँ बहुत थोड़ी या संक्षिप्त अक्षरावली होती है, वैसा शब्द समवाय-सूत्र या मंत्र होता है। ऐसे सूत्र या मंत्र का जिस योगाभ्यासगत क्रिया में | उच्चारण किया जाता है, उसे 'ऊर्ण-योग कहा जाता है। जहाँ समवाय में स्थित अर्थ के अवबोध का प्रयत्न रहता है, अर्थात् योगाभ्यासगत क्रिया में जहाँ उच्चार्यमाण शब्दों के अर्थावबोध का उपक्रम विद्यमान रहता है, वह 'अर्थयोग' है।
__ ध्यान में जहाँ बाह्य प्रतीक आदि का आलंबन या आधार रहता है, वह 'आलंबन-योग' है। जहाँ मूर्त प्रतीकों का आलंबन नहीं लिया जाता, वह 'अनालंबन-योग' कहा जाता है। यह निर्विकल्पक होता है, चिन्मय मात्र और समाधि रूप होता है।
योगसिद्धि
ग्रंथकार बतलाते हैं कि नैश्चयिक दृष्टि से ऊपर वर्णित पाँच प्रकार का योग उन्हें सिद्ध होता है,
१. योगविंशिका, गाथा-१.
२. योगविंशिका, गाथा-२.
३. कायोत्सर्ग ध्यान, पृष्ठ : ३८.
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