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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
प्रत्याहार का लक्षण
इंद्रियों की बाह्य वृत्ति को सब ओर से खींचकर समेटकर मन में विलीन करने का अभ्यास प्रत्याहार है जब अभ्सास काल में साधक इंद्रिय विषयों का परित्याग कर चित्त को अपने ध्येय में संलग्न करता है, उस समय इंद्रियों का विषयों की ओर न जाकर चित्त में स्थिर हो जाना, प्रत्याहार सिद्ध होने का लक्षण है ।
प्रत्याहार और प्रतिसंलीनता का समन्वय
प्रतिसंलीनता का अभिप्राय इंद्रियों और मन को उनके विषयों से आकृष्ट कर आत्मलीन करना है | अर्थात् प्रत्याहार और प्रतिसंलीनता का आशय लगभग एक जैसा ही है। दोनों में ही इंद्रियों की | स्वेच्छाचारिता को रोक कर नियंत्रित करना है। स्थिरादृष्टि में साधक की मनः स्थिति भोगों से त्याग की ओर उन्मुख होती है उसे रत्न ज्योति की उपमा दी गई है। । -
अन्ततः स्थिरादृष्टि में विद्यमान सम्यक्त्वी साधक की अज्ञानांधकारमयी ग्रंथि का विभेद हो जाता
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है
उसे घर, परिवार, वैभव आदि बाह्य भाव मृगतृष्णा की तरह या स्वप्न की तरह सर्वथा मिथ्या प्रतीत होने लगते हैं । उसका चिंतन यहाँ तक आगे बढ़ जाता है कि धर्म के प्रासंगिक फलस्वरूप प्राप्त सुख को वह प्रणियों के लिए अनर्थजनक मानने लगता है, क्योंकि अग्नि यदि चंदन काष्ठ की भी हो तो भी वह जलती तो है ही।
भोगों को भोग लेने से इच्छा नष्ट हो जाएगी, यह सोचना उसी प्रकार व्यर्थ है, जैसे कोई 'भारवाहक गट्टर को अपने एक कंधे से हटाकर दूसरे कंधे पर रखे और सोचे, वह भारमुक्त हो गया है । स्थिरादृष्टि में स्थित साधक का चिंतन इस दिशा में विशेष रूप से अग्रसर होता है ।
६. कांतादृष्टि
इस दृष्टि में विद्यमान योगी के व्यक्तित्व में एक ऐसी विशेषता आ जाती है कि उसके सम्यक् | दर्शन आदि उत्तमोत्तम गुण औरों को सहज ही प्रीतिजनक प्रतीत होते हैं। उसे देखकर दूसरों के मन | में द्वेष भाव उत्पन्न नहीं होता। प्रीति उमड़ती है । इस दृष्टि में साधक को योग का छठा अंग- धारणा सिद्ध हो जाता है ।
१. योगसूत्र, साधनपाद, सूत्र- ५४
३. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक १६०, १६१.
२. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक १५५, १५६.
४. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक - १६२.
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