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________________ लता प्राप्त क साधनों आत्म-सिद्धि वाह बहता सुनने के त्त्व-श्रवण ' का चौथा आती-जाती का जीवन, चरण करने के अनंतर को जीतना । इसलिए पर दूसरे इन दोनों मोक्ष प्राप्त नोक-१-३. प्राणायाम के प्रकार और श्वास-प्रश्वास की गति का छेद या निरोध करना प्राणायाम का लक्षण है। रेचक, पूरक कुंभक के रूप में उसके तीन भेद हैं। कतिपय आचार्यों का यह मंतव्य है कि रेचक, पूरक और कुंभक के साथ प्राणायाम के प्रत्याहार, शांत, उत्तर और अधर- ये चार भेद और हैं । इन सबको मिलाने से प्राणायाम के सात भेद होते हैं । जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना रेचक, पूरक, कुंभक अत्यधिक प्रयत्न के साथ नासिका, ब्रह्मरन्ध्र और मुख द्वारा उदरवर्ती वायु को बाहर निकालना 'रेचक' प्राणायाम कहा जाता है। वायु को बाहर से आकृष्ट कर अपानपर्यंत कोष्ठ में (उदर में ) पूरित कर लेना 'पूरक' प्राणायाम है एवं नाभि कमल में रोकना 'कुंभक' प्राणायाम है।" योग-सूत्र में प्राणायाम महर्षि पतंजलि ने प्राणायाम की परिभाषा में लिखा है प्राणवायु का देह में प्रविष्ट होना 'श्वास' है तथा उसका बाहर निष्कासित होना 'प्रश्वास' है । इन दोनों की गति का रुक जाना प्राणायाम का | सामान्य लक्षण है। इसका सारांश यह है कि श्वास-प्रश्वास का नियमन ही प्राणायाम है । दीप्रादृष्टि की विशेषताएं इस दृष्टि में विद्यमान साधक का मानसिक स्तर इतना ऊँचा हो जाता है कि वह निश्चित रूप में धर्म को अपने प्राणों से भी बड़ा समझता है। वह धर्म के लिए प्राणों तक का त्याग कर सकता है। धर्म को ही वह परम मित्र मानता है। वह तत्त्व श्रवण में तत्पर रहता है। जैसे खारे जल के परित्याग और मीठे जल के योग से बीज उगता है, उसी तरह साधक के मन में बोध बीज अंकुरित हो जाता है उसे सम्यक् दृष्टि प्राप्त होती है।" 1 ५. स्थिरादृष्टि स्थिरादृष्टि प्राप्त होने पर दर्शन या श्रद्धा नित्य अप्रतिपाती हो जाती है। फिर वह मिटती नहीं । योग का पाँचवां अंग प्रत्याहार वहाँ सिद्ध होता है । " १. योगशास्त्र, प्रकाश-५ श्लोक-४, ५. ३. योगसूत्र, साधनपाद, सूत्र- ४९ ५. योगदृष्टि समुच्चय श्लोक-१५४ २. योगशास्त्र, प्रकाश- ५, श्लोक - ६, ७. ४. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक - ५८-६५. 389
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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