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णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
योगमूलक प्रवृत्तियों में विक्षेप, विघ्न या बाधा नहीं आती। उसे शुभोपक्रमों में कुशलता प्राप्त होती है।
एक और विशेषता उसमें आ जाती है कि वह अध्यात्म-साधना में उपकारक या सहायक साधनों में इच्छा का प्रतिबंध नहीं करता। अथवा वह साधना को ही सब कुछ नहीं मान लेता। आत्म-सिद्धि रूप साध्य को प्राप्त करने में उसका प्रयत्न होता है।
४. दीप्रादृष्टि
दीप्रादृष्टि प्राप्त हो जाने पर साधक के अंत:करण में सहजतया प्रशांत रस का ऐसा प्रवाह बहता है कि उसका चित्त योग से हटता ही नहीं। यहाँ तत्त्व-श्रवण सिद्ध होता है। अर्थात् तत्त्व सुनने के और समझने के प्रसंग उपलब्ध होते रहते हैं। न केवल बाह्य रूप में वरन् अंत:करण द्वारा तत्त्व-श्रवण की स्थिति उत्पन्न होती है, किंतु सूक्ष्म बोध प्राप्त करना फिर भी बाकी रहता है। यहाँ योग का चौथा अंग प्राणायाम सिद्ध हो जाता है।
प्राणायाम का स्वरूप
प्राण का अर्थ वायु है। देहगत वायु श्वास एवं उच्छ्वास के रूप में शरीर के भीतर आती-जाती है। उसको विशेष रूप से नियंत्रित करना प्राणायाम है। श्वासोच्छ्वास की क्रिया-प्रक्रिया का जीवन के साथ गहरा संबंध है।
आचार्य हेमचंद्र ने प्राणायाम के संबंध में लिखा है कि मुख और नासिका के भीतर संचरण करने वाले वायु का निरोध करना प्राणायाम है।
कई आचार्यों ने ऐसा स्वीकार किया है कि यम, नियम और आसनों के अभ्यास के अनंतर ध्यान-सिद्धि के लिए प्राणायाम की विशेष उपयोगिता है। उसके बिना मन को और पवन को जीतना संभव नहीं होता।
जहाँ मन है, वहाँ पवन है और जहाँ पवन का अस्तित्व है, वहाँ मन का अस्तित्व है। इसलिए क्षीर और नीर की भाँति पवन और मन परस्पर मिले हुए हैं। उनमें से एक का नाश होने पर दूसरे का नाश हो जाता है। एक का वर्तन या प्रवृत्ति होने पर दूसरे की प्रवृत्ति हो जाती है। जब इन दोनों का नाश हो जाता है, तब इंद्रिय-व्यापार और बुद्धि-व्यापार का भी नाश हो जाता है तथा मोक्ष प्राप्त होता है।
१. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-५१. २. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-५७. ३. योगशास्त्र, प्रकाश-५, श्लोक-१-३.
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