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- अवस्थाएं गौण | ना गया है। वहाँ
पड़ने के अनेक जयोग के नाम
उजन्य वर्ग और
जा होते हुए भी
तीत थे। इतने
में उत्पन्न थे ।
बेचारणीय है।
समृद्धि, सत्ता दृष्टि से उनमें
परित्याग कर
ही जाता था, लोगों को नहीं प्रसंग बनता नी रहती है ।
कि जीवन का ते हैं । आए, उन्होंने
समाधिमूलक
हुए कहाने कहा तथा
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जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्ध की साधना
मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु को बताया। इस प्रकार परंपरागत इस योग को राजर्षि प्राप्त करते रहे, | इसकी साधना करते रहे । तदनंतर यह योग बहुत समय से इस पृथ्वी लोक में प्रायः लुप्त हो गया । हे अर्जुन! मैंने पुन: तुम्हें यह बतलाया है ।
गीता के प्रस्तुत प्रसंग से यह सूचित है कि राजयोग की परंपरा राजर्षियों, राजाओं या क्षत्रियों में विशेष रूप से प्रसूत रही है।
विमर्श
बलादृष्टिगत आसन के संदर्भ में जो योग की चर्चा की गई है, उसका अभिप्राय यह है कि भारत में योग के क्षेत्र में साधकों ने अनेक प्रकार के प्रयोग किए। उसके एक-एक अंग पर बहुत ही व्यापक चिंतन हुआ। उसके अनुरूप अभ्यास भी गतिशील बना। उस गतिशीलता में यदि सर्वत्र समन्वय अनुस्यूत रहे तो कोई कठिनाई उत्पन्न न हो, पर जब किसी एक का अतिरेक हो जाता है, तो सामंजस्य मिट जाता है ।
हठयोग की परंपरा में कुछ ऐसा ही घटित हुआ। चौरासी हजार तथा चौरासी लाख आसनों की सिद्धि कोई कर पाए ऐसा बहुत कम संभव है । यदि कोई प्रयत्न भी करे तो उसमें सारा जीवन लग सकता है।
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बलादृष्टि की विशेषताएं
बलादृष्टि में साधक के जीवन में स्थिरता का समीचीन रूप में समावेश होने लगता है। साधक के जाने, आने, हिलने, चलने आदि में त्वरा उतावलापन या तेजी नहीं रहती। वह प्रत्येक कार्य स्थिरता पूर्वक करता है। उसके कार्यों में मानसिक सावधानता बनी रहती है ।
साधक में
शुश्रूषा ( श्रोतुमिच्छा) का भाव उदित होता है । वह तत्त्व - श्रवण में सदा उत्सुकता लिए रहता है । सत्पुरुष ऐसा मानते है कि शुश्रूषा भूमि के भीतर प्रवाहित होने वाले स्रोत या | जलनालिका के समान है। जैसे जलनालिका न हो तो कुआ व्यर्थ है। वैसे ही शुश्रूषा के बिना तत्त्व ज्ञान नहीं होता ।
शुश्रूषु- सुनने की इच्छा वाले व्यक्ति को यदि तत्त्व सुनने का योग न मिले तो भी श्रवणोत्कंठा के रूप में शुभ भाव की प्रवृत्ति के कारण कर्म क्षय होता है, जिसके फलस्वरूप बोध प्राप्ति होती है ।
बलादृष्टि के प्राप्त हो जाने पर योगाभ्यासी साधक के चिंतन, मनन और ध्यान आदि में शुभ
१. श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ४, श्लोक-१-३.
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