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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन की सीमा से असंपृक्त थी । वहाँ धारणा, ध्यान एवं समाधिमूलक चिंतनात्मक उत्कृष्ट अवस्थाएं गौण होने लगीं, जो योग के वास्तविक लक्ष्य के साथ जुड़ी थीं । 'राजयोग' चिंतन प्रधान माना गया है । वहाँ | चित्त की शुद्धि या परिष्कृति पर विशेष बल दिया गया है। इसका 'राजयोग' नाम पड़ने के अनेक कारण हैं। कहा जाता है, यह योग के क्षेत्र में राजा की तरह सर्वोत्कृष्ट है, अतः 'राजयोग' के नाम | से अभिहित हुआ । ऐतिहासिक दृष्टि से एक दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि योग की इस धारा में राजन्य वर्ग और क्षत्रिय विशेष रूप से आए। मिथिला नरेश जनक आदि इसके उदाहरण है। जनक राजा होते हुए भी योगी माने जाते थे। वे विदेह के नाम से प्रसिद्ध थे। विदेह अर्थात देहावस्था से वे अतीत थे। इतने | आत्मलीन थे, जिससे दैहिक अनुकूलता तथा प्रतिकूलता का उन्हे भान तक नहीं था । यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है, जैन परंपरा मे सभी तीर्थंकर क्षत्रिय कुल में उत्पन्न थे । तीर्थंकर क्षत्रिय कुल में ही उत्पन्न होते हैं, ऐसी मान्यता है। यह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचारणीय है । 1 प्राचीन भारत में प्रायः क्षत्रिय ही शासक या राजा थे राजाओं को भौतिक समृद्धि, सत्ता अधिकार सभी प्राप्त थे, जिनका लौकिक जीवन में महत्त्व है जब आध्यात्मिक दृष्टि से उनमें अंतश्चेतना जागरित होती, वे अध्यात्म की गरिमा समझ लेते, संपत्ति - राज्य आदि का परित्याग कर | देते, सर्वस्व त्यागी साधक का जीवन अपना लेते । ज्ञानपूर्वक, समझपूर्वक वैभव का त्याग कर देने के बाद उनका मन उसमें कभी नहीं जाता था, क्योंकि उसके स्वाद का वे खूव अनुभव कर चुके थे। वे पुरुष भी, जिन्होंने सांसारिक भोगों को नहीं | देखा हो, नहीं चखा हो, त्याग के मार्ग पर आते हैं, किंतु जब भोगमय सुखों का उद्दाम प्रसंग बनता | है, उनका गिरना आशंकित रहता है, क्योंकि वे भुक्त भोगी नहीं होते । उनमें तृष्णा बनी रहती है । क्षत्रिय कुलोत्पन्न या राजकुलोत्पन्न पुरुषों में ऐसा होना बहुत कम संभावित है, क्योंकि जीवन का भोग पक्ष वे पहले ही भलीभाँति देख चुके हैं । अत एव वे अध्यात्म - योग में सफल होते हैं । जैन परंपरा की तरह वैदिक परंपरा में भी क्षत्रिय कुलोत्पन्न राजा, जो भी योग में आए, उन्होंने बड़ी सफल साधना की संभव है, राजाओं द्वारा सेवित होने के कारण धारणा ध्यान-समाधिमूलक आत्मचिंतनमय योग 'राजयोग' के नाम से विश्रुत हुआ । वे राजा राजर्षि कहलाए । गीता में राजयोग का निरूपण कृष्ण योगिराज श्री ने अर्जुन को संबोधित कर राजयोग की परंपरा का विवेचन करते हुए कहा| मैंने यह अव्यय, अविनश्वर या शाश्वत योग सूर्य को बतलाया। सूर्य ने अपने पुत्र मनु से कहा तथा 386 28
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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