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जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना
वमासनम्'
रूप से संकेत __ हो, अधिक
बनी रहे। : अनंत में
व प्रकार की चालन नहीं
गीता में आसनों की चर्चा
श्रीमद्भगवद्गीता में आसन लगाने के संबंध में चर्चा करते हुए लिखा है
शुचि प्रदेश में, शुद्धभूमि में वस्त्र, अजिन, (मृगछाला) कुश आदि बिछा कर ऐसे स्थान पर साधक आसन लगाए, जो न अधिक ऊँचा हो, न अधिक नीचा हो। आसन पर स्थित होकर वह चित्त एवं इंद्रियों की क्रियाओं को वश में करता हुआ एकाग्र भाव से अंत:करण की शुद्धि हेतु योगाभ्यास करे, ध्यान करे। शरीर, मस्तक और ग्रीवा को सीधे, स्थिर और अचल रखे। नासिका के अग्र भाग पर दृष्टि को लगाए रहे। अन्य दिशाओं की ओर न देखे। हठयोग में आसनों का विस्तार
हठयोग और राजयोग के रूप में योग के दो भेद हैं। हठयोग का संबंध मुख्यत: देह-शुद्धि के साथ है। आसन, धौति, नेति, बंध, मुद्रा आदि के रूप में उसका बहुत विस्तार हुआ।
हठयोग का पहला अंग आसन है। वहाँ चौरासी आसन माने गए हैं, जिनकी उत्तरोत्तर संख्याएं बढ़ती गई। हठयोग प्रदीपिका के अनुसार चौरासी आसनों में सिद्धासन, पद्मासन, सिंहासन और भद्रासन मुख्य हैं। उनमें भी योगाभ्यासियों के लिए सिद्धासन को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। इसे वज्रासन, मुक्तासन एवं गुप्तासन भी कहा जाता है। ध्यान-योग की साधना में यह बहुत उपयोगी है।
- नाथ-परंपरा के महान् संत श्री गोरखनाथ की परंपरा में हठयोग का विशेष रूप से विकास हुआ। वहाँ आसन आदि देह-शुद्धि के उपक्रमों पर इतना अधिक जोर दिया गया कि योग के अन्य अंग गौण हो गए। - महर्षि पतंजलि ने और गीताकार ने जैसा ऊपर उल्लेख हुआ है, इस बात पर कोई जोर नहीं दिया कि अमुक आसन से ही ध्यान किया जाय। उन्होंने यही कहा कि सुविधापूर्वक सुखासन से योगाभ्यास किया जा सकता है।
। जरा भी ल हो जाती त के अनेक धारणतया
[ अर्थ चित्त आदि अंगों गया है। भी आसन
भेघात नहीं
द्व हो जाने बिना किसी को चंचल
अनुचिन्तन
हठयोगियों ने आसन को अत्यधिक महत्त्व दिया। उन्होंने चौरासी आसनों की कल्पना की। उनका अभ्यास किया, प्रचार किया। आगे चलकर ये चौरासी आसन चौरासी लाख की संख्या तक पहुंच गए। चौरासी लाख प्रकार की जीवयोनियाँ मानी जाती हैं। उन सबके बैठने या स्थित होने को आधार मानकर आसनों का यह विस्तार प्रतिपादित हुआ। यह एक अतिरेकपूर्ण स्थिति बनी, जो व्यावहारिकता
१. श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय-६, श्लोक-११-१३.
२. हठयोगप्रदीपिका, श्लोक-३३, ३४, ३७, ४०.
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