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________________ णमो सिद्धाणं पद समीक्षात्मक परिशीलन योगसूत्र में आसन : परिभाषा एवं सिद्धि महर्षि पतंजली ने योगसूत्र में आसन की परिभाषा करते हुए लिखा है- 'स्थिरसुखमासनम्'स्थिरता, निश्चलता और सुखपूर्वक बैठना आसन है। पतंजलि ने यहाँ इस बात का विशेष रूप से संकेत किया है कि योगी को आसन लगाने या बैठने में पैर आदि शारीरिक अंगों को कष्ट न हो, अधिक खिंचाव न हो, इसका ध्यान रहे और साथ ही साथ चंचलता न रहे। बैठने में स्थिरता बनी रहे। उन्होंने आसन-सिद्धि का वर्णन करते हुए लिखा है- प्रयत्न की शिथिलता से और अनंत मेंपरमात्म भाव में मन लगाने से आसन सिद्ध होता है। शरीर को सीधा, स्थिर करके, सुखपूर्वक बैठ जाने के पश्चात् शरीर से संबंधित सब प्रकार की चेष्टाओं का त्याग करना प्रयत्न - शिथिलता है । अर्थात् देह के अंगोपांगों का संचालन परिचालन नहीं करना चाहिए। ज्ञात, अज्ञात रूप में न वैसा प्रयत्न ही किया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में ऐसी दैहिक स्थिति स्वीकार करनी चाहिए, जिसमें सहजतया स्थिरता हो । जरा भी चंचलता, चपलता न रहे। वैसा होना प्रयत्न- शैथिल्य है, क्योंकि वहाँ प्रयत्नशीलता शिथिल हो जाती। है, मिट जाती है। आसन सिद्धि में यह एक हेतु है। दूसरा हेतु अनंत समापत्ति है। अनंत के अनेक अर्थ होते हैं। एक अर्थ परमात्म-तत्त्व है। इसलिए अनंत समापत्ति का अभिप्राय साधारणतया परमात्मा में चित्त लगाना है I योग सूत्र के टीकाकार भोजराज ने अनंत का अर्थ आकाश किया है तथा समापत्ति का अर्थ चित्त | का तद्रूप होना बतलाया है। आठ अंगों में समाधि अंतिम अंग है उसी के लिए आसन आदि अंगों के अनुष्ठान का विधान है। अतः आसन को समाधि का बहिरंग साधन स्वीकार किया गया है। समापत्ति का अर्थ समाधि है अर्थात् परमात्मभाव में समाधिनिष्ठ होने का प्रयत्न करना भी आसनसिद्धि का उपाय है । महर्षि पतंजलि ने आगे लिखा है- जब आसन की सिद्धि हो जाती है तो इन्हों का अभिघात नहीं होता।' सदी-गर्मी आदि इन्द्र कहे जाते हैं, क्योंकि ये शरीर को पीड़ित करते हैं। आसन सिद्ध हो जाने से योगी पर सर्दी, गर्मी, हवा, तूफान आदि का प्रभाव नहीं पड़ता। उसका शरीर उन सबको बिना किसी प्रकार का कष्ट अनुभव किए सहने में सक्षम हो जाता है। अत एव वे द्वन्द्व विघ्न चित्त को चंचल बनाकर बाधित नहीं कर सकते। १. योगसूत्र, साधनपाद, सूत्र- ४६. ३. योगसूत्र, साधनपाद, सूत्र- ४८. २. योगसूत्र, साधनपाद, सूत्र- ४८. 384
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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