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________________ जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना H । इस जीवन वलम्बन है। १. ऊर्ध्व स्थान व खडे होकर किए जाने वाले आसन ऊर्ध्व-स्थान कहलाते हैं। उनके साधारण, सविचार, सन्निरूद्ध, व्युत्सर्ग, समपाद, एकपाद, तथा गृद्धोड्डीन- ये सात भेद हैं। २. निषीदन-स्थान बैठ कर किए जाने वाले स्थान या आसन निषीदन-स्थान कहे जाते हैं। निषधा, वीरासन, पदमासन, उत्कटिकासन, गोदोहासन, मकरमुखासन तथा कट्टासन इनके अन्तर्गत हैं। को सरलभाव 'शरण लेनी पंगति करनी तत्त्व-श्रवण नाश होता ता है। यह 'का प्रयोग ऊर्ध्व-स्थान ३. शयन-स्थान शयन या लेट कर किए जाने वाले आसन शयन-स्थान कहलाते हैं। शवासन आदि इसके अन्तर्गत हैं। योगशास्त्र में आसनों का निरूपण आचार्य हेमचंद्र ने ध्यान के विवेचन के संदर्भ में आसनों की चर्चा की है। उन्होंने लिखा है कि ध्यान हेतु आसन साधने के लिये योगी ऐसे स्थानों में जाए, जो उत्तम हों, जहाँ तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा, सर्वज्ञ की प्राप्ति और निर्वाण हुआ हो। यदि वहाँ जाना संभव न हो तो किसी विविक्त- स्त्री, पशु एवं नपुंसक-विवर्जित, पर्वत की गुफा आदि एकांत स्थान का आश्रय ले। उन्होंने पर्यंकासन, वीरासन, वज्रासन, पद्मासन, भद्रासन, दंडासन, उत्कटिकासन, गोदोहिकासन एवं कायोत्सर्गासन आदि का वर्णन किया है। उन्होंने, ध्यान में किस आसन को स्वीकार किया जाए, इस पर लिखा है कि जिस-जिस आसन का प्रयोग करने से मन में स्थिरता आए, उसी का ध्यान के साधन के रूप में उपयोग करना चाहिए। अर्थात् ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है कि अमुक आसन में स्थित होकर ही ध्यान किया जाए। ___ उन्होंने आसन में किस प्रकार बैठा जाए, दैहिक स्थिति कैसी हो ? इसका स्पष्टीकरण करते हुए महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए हैं। उनके अनुसार ध्यान का अभ्यास करने वाला साधक ऐसे आसन से बैठे, जिसमें कठिनाई न हो। लम्बे समय तक बैठने पर भी मन विचलित न हो। आसन-स्थित योगी के दोनों ओष्ठ परस्पर मिले हुए हों। दोनों नेत्र नासिका के अग्र भाग पर अवस्थित हों। दाँत इस प्रकार रहें कि ऊपर के दाँत नीचे के दाँतों का स्पर्श न करें। मुख-मुद्रा प्रसन्नतामयी हो। मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर हो। मन में प्रमाद, आलस्य या असावधानता न हो। मेरुदंड सीधा हो, सुव्यवस्थित स्थिति में विद्यमान हो। बैठना है, कुछ बैठने अर्थ सूचक जी है १. योगशास्त्र, प्रकाश-४, श्लोक-१२४-१३३. २. योगशास्त्र, प्रकाश-४, श्लोक १३५, १३६. 383 LARSA
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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