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________________ णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन नलिनीदलगतजलमतितरलं, तद्वज्जीवितमतिशयचपलम् । क्षणमिह सज्जसंगतिरेका, भवत्ति भवार्णवतरणे नौका ।। कमलिनी के पत्र पर पड़े हुए जल के समान यह जीवन अत्यंत चंचल- क्षणभंगुर है। इस जीवन में संसार-सागर को पार करने के लिए क्षण भर की सत्संगति भी नौका के तुल्य अनन्य अवलम्बन है। तारादृष्टि में इसी तथ्य पर विशेष बल दिया गया है और कहा गया है कि साधक को सरलभाव से यह सोचते हुए कि “मैं तुच्छ हूँ, अल्पज्ञ हूँ, महापुरुष ही मेरे पथदर्शक हैं, मुझे उनकी शरण लेनी चाहिए, जिससे मैं अपने साधना-पथ पर अग्रसर होने में क्रमश: सफल होता जाऊँ,” सत्संगति करनी चाहिए। ३. बलादृष्टि | बलादष्टि में दर्शन- सद्बोध की दिशा दृढ़ता प्राप्त करती है। परम तत्त्व में शुश्रूषा, तत्त्व-श्रवण | की उत्कंठा उत्पन्न होती है। योग-साधना में अक्षेप होता है। क्षेप नामक चित्त-दोष का नाश होता है। क्षेप का अभिप्राय योगाभ्यास में विघ्न होना है, जो इस दृष्टि में अपगत, विनष्ट हो जाता है। यह तीसरी दृष्टि है। इसमें योग का तीसरा अंग आसन सध जाता है। आसन-स्थान आसन शब्द साधना-क्षेत्र में बहुत प्रचलित है। जैन परंपरा में आसन की जगह स्थान का प्रयोग हुआ है। ओघनियुक्ति भाष्य में आसन या स्थान के तीन भेद बतलाए गए हैं- १. ऊर्ध्व-स्थान २. निषीदन-स्थान तथा ३. शयन-स्थान। स्थान का अर्थ स्थिति, गति की निवृत्ति या स्थिर होना है। आसन का शाब्दिक अर्थ बैठना है, किंतु वास्तविकता यह है कि सब आसन बैठकर नहीं किए जा सकते। कुछ आसन खड़े रहने, कुछ बैठने और कुछ सोने की स्थिति में होते हैं। इस दृष्टि से आसन की अपेक्षा स्थान शब्द अधिक अर्थ सूचक प्रतीत होता है। स्थान के भेद ओघनियुक्ति-भाष्य में प्रतिपादित स्थान के भेदों की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है RATimls १. मोहमुद्गर, श्लोक-५. २. ओघनियुक्ति-भाष्य, गाथा-१५२. 382
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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