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________________ AKSHAR जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना ने वाली ग-कथा भिरूचि बहुमान, निश्चय त होता होती है, शष्टजन मिन के हाँ वैसा क्योंकि ज्ञान का मार्ग बड़ा दुरूह है, कठिन है। कहा है क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया, दुर्ग पथस्तत् कवयो बदन्ति । संतों ने इसी बात को 'ज्ञान को पंथ, कृपाण की धारा- इन शब्दों में कहा है। अर्थात् यह मार्ग तलवार की तीक्ष्ण धार के समान है। जैसे उस पर चल पाना कठिन है, उसी प्रकार ज्ञान के मार्ग पर अग्रसर हो पाना बड़ा मुश्किल है अनेकशास्त्रं बहु वेदितव्यमल्पश्च कालो बहवश्च विघ्नाः। यत्सारभूतं तद्पासितव्यं, हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात् ।। अर्थात् शास्त्र अनंत हैं। विद्याएँ बहुत हैं। जीवन का समय बड़ा स्वल्प है। उसमें अनेक विघ्न आते रहते हैं। इसलिए जैसे हंस पानी में से दूध को ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार सारभूत तत्त्वों को ग्रहण करना चाहिए। यह केवल सत्पुरुषों के सानिध्य से ही सिद्ध होता है। वे महान् ज्ञानी होते हैं। उनके प्रति जो श्रद्धाशील एवं सेवाशील होते हैं, वे तत्त्व ज्ञान रूपी अमृत को प्राप्त कर सकते हैं। । यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में सत्संगति को बड़ा महत्त्व दिया गया है। सत्संगति से यह सब बड़ी सुगमता के साथ प्राप्त हो जाता है, जिसे स्वयं अपने उद्यम से प्राप्त करना बहुत कठिन होता है। सत्संगति की महत्ता के विषय में निम्नांकित श्लोक बहुत प्रसिद्ध है जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यम्, मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति । चेत: प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिम्, सत्संगति कथय किं न करोति पुंसाम् ।। संतों की संगति से बुद्धि की जड़ता का नाश होता है, सद्बुद्धि उत्पन्न होती है। वाणी में सत्य का सिंचन होता है। संप्रतिष्ठा होती है। उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। पाप का अपाकरण या नाश होता है। चित्त में प्रसन्नता का उद्भव होता है। दिदिगंत में कीर्ति व्याप्त होती है। कहो ! सत्संगति से क्या नहीं होता? अर्थात् सत्संगति से वह सब प्राप्त होता है, जिससे जीवन का कल्याण सधता है। आद्य शंकराचार्य ने 'मोहमुद्गर' नामक पुस्तक में सत्संगति के सम्बंध में लिखा है-- -भाव ओं के संसार हता है मसात् स्त्रीय T हैं, १. कठोपनिषद्-१, ३, १४. २. सुभाषितरत्नभाण्डागारम् : १७३, ८७८. ३. सुभषितरत्नभाण्डागारम् ८७, २९. 381 न
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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