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________________ यामो सिध्वाणं पद समीक्षात्मक परिशीलन इस प्रकार प्रतिपक्ष भावना का बार-बार चिंतन करने से यम और नियमों के पालन में आने वाली । बाधाएँ मिट जाती हैं। आचार्य हरिभद्र बतलाते हैं कि दूसरी तारादृष्टि के प्राप्त हो जाने पर साधक के मन में योग- कथा में योग-विषयक चर्चा-परिचर्चा में अछिन्न- विच्छेद रहित, अखंडित, अबाधित, प्रीति- अभिरूचि उत्पन्न होती है, जो शुद्ध-योग की साधना में संलग्न हैं, ऐसे सत्पुरुषों का वह नियम- पूर्वक बहुमान, सन्मान करता है। इसके साथ-साथ वह उनकी यथाशक्ति सेवा करता है। ऐसा करने से वह निश्चय ही अपनी योग साधना में विकास करता है। इससे उसे योगनिष्ठ महापुरुषों का अनुग्रह प्राप्त होता 181 सत्पुरुषों की सेवा से और भी अनेक लाभ होते हैं । सेवाशील पुरुष की श्रद्धा विकसित होती है, आत्महित समुदित होता है। साधना में आने वाले तुच्छ उपद्रव, विघ्न दूर हो जाते हैं तथा शिष्टजन उसे मान देते हैं । तारादृष्टि में अवस्थित साधक को भव भय नहीं रहता, अर्थात् वह जन्म-मरण या आवागमन के 'भय से रहित होता है। वह कृत्य हानि से विमुक्त होता है, जहाँ जैसा करना समुचित है, वहाँ वैसा करने में चूकता नहीं। अनजाने में भी वह अनुचित कार्यों से अपने को बचाए रखता है। जो पुरुष उत्तम गुण-युक्त हैं, उनके कार्य उच्च हैं, साधक उनके प्रति उल्लासपूर्ण जिज्ञासा - भाव लिए रहता है, उनसे सीखने का मन में उत्साह रखता है । वह अपने आप में विद्यमान न्यूनताओं के | लिए मन में संत्रास का अनुभव करता है। वैसे पुरुष का यह चिंतन रहता है कि यह समग्र संसार दुःखरूप है । उसका किस प्रकार उच्छेद या विनाश किया जा सके ? उसके मन में यह भाव रहता है। कि सत्पुरुषों की सत्प्रवृत्तियों का उसे कैसे ज्ञान हो ? अर्थात् वह सत्प्रवृत्तियों को ज्ञात और आत्मसात् करना चाहता है । उसका चिंतनक्रम और आगे बढ़ता है। वह सोचता है, मुझमें विशेष बुद्धि नहीं हैं, मेरा शास्त्रीय अध्ययन भी बहुत कम है, इसलिए मेरे लिए और सभी साधकों के लिए सत्पुरुष ही प्रमाण हैं, आधारभूत हैं।' विशेष तारादृष्टि प्राप्त होने पर एक विशेष बात यह फलित होती है, साधक यह मानने लगता है कि उसे उन महापुरुषों का सान्निध्य प्राप्त करना चाहिए, जिन्होंने साधना के क्षेत्र में विकास किया है, १. योगदृष्टि समुच्चय श्लोक-४२-४८. 380
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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