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________________ जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना होता है। मार्ग पर आगे बढ़ाया जाय, उसे नियम कहा जाता है। नियम एक ऐसी जीवन-सरणि प्रदान करते हैं, जिसका अवलंबन कर व्यक्ति विकास के पथ पर सुगमतापूर्वक अग्रसर हो सकता है। और वह अंतिम इसलिए के वैसी देशा में ते, किंतु ड़ी हुई ज्योति महर्षि पतंजलि ने शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान को नियम कहा है। ये पाँच ऐसे विधान हैं, जिनको अपनाने से एक योगी या अध्यात्म-साधक, यम या संयम की दिशा में निर्बाध रूप में अग्रसर हो सकता है। शौच का अर्थ बाह्य और आभ्यंतर पवित्रता है। कर्तव्य-कर्म का पालन करते हुए उसका जो कुछ परिणाम हो, उससे परितप्त रहना संतोष है। संतोष का साधक के जीवन में बड़ा महत्त्व है। मनुस्मति में कहा है- सुख का इच्छुक संतोष का अवलंबन लेकर अपने आपको संयम में अनुरक्त रखे, क्योंकि संतोष सुख का मूल है और उसका विपर्यय- असंतोष दुःख का मूल है।' आत्मा को पवित्र बनाने के साधन- आत्म-पवित्रता के उपक्रम तप में आते हैं। सत् शास्त्रों का अध्ययन तथा स्वानुभव में संलग्नता स्वाध्याय है। परमात्मा का प्रणिधान या शरणगति, ईश्वरप्रणिधान है। | ये नियम जो पतंजलि ने बताए हैं, अपने आप में व्यापकता लिए हुए हैं। किसी भी धार्मिक आम्नाय में आस्थाशील व्यक्ति के लिए इनमें कोई बाधा नहीं है। मनुष्य में बड़ी दुर्बलताएँ हैं । सांसारिक आसक्ति, ममता, मोह आदि ऐसे अनेक हेत हैं, जो संयम और नियम के पथ पर आगे बढ़ने में उसके लिए बाधाएँ उत्पन्न करते रहते हैं। संयम-नियम की बातें करना बहुत सरल है, किंतु उन्हें जीवन में क्रियान्वित कर पाना बहुत दुष्कर है। इनके क्रियान्वयन हेतु महर्षि पतंजलि ने एक मार्ग दिखया है। उन्होंने लिखा है- जब यम, नियम के पालन में वितर्क पैदा हो अर्थात् उनमें बाधा पहुँचाने वाले हिंसा, लोभ आदि भाव पैदा हों तो उनके प्रतिपक्षी भावों का बार-बार चिंतन करना चाहिए। उन्होंने इस विषय को और अधिक स्पष्ट करते हुए बतलाया है| नियमों एवं नियमों के विरोधी हिंसा आदि वितर्क भाव कृत, कारित एवं अनुमोदित- तीन प्रकार के होते हैं। लोभ, क्रोध और मोह उन वितर्क भावों के उत्पन्न होने के हेतु हैं। मद, मध्य एवं अधिमात्र- छोटे, मध्यम और बड़े, ये तीन प्रकार के होते हैं । अर्थात् लोभ, मोह और क्रोध तरतमता की दृष्टि से ये तीन रूप लिए रहते हैं। इनका फल अनंत काल तक दु:ख और अज्ञान है। हेतप्रद कुलता ज्ञासा सही १. मनुस्मृति, अध्ययन-४, श्लोक-१२. २. योगसूत्र, साधनपाद, सूत्र-३३. 379 GRA NEE
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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