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णमो सिध्दाण पद: समीक्षात्मक परिशीलन
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इस प्रकार की उत्तम क्रियाएँ या कार्यों का फल अमोघ होता है, निश्चित रूप से उत्तम होता है।। यह फलावंचक का रूप है।'
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यथाप्रवृत्तिकरण एवं अपूर्वकरण
त्रिविध अवंचकोदय के फलित होने पर व्यक्ति में आन्तरिक मल की अल्पता आती है, और वह अंतिम यथाप्रवृत्तिकरण की स्थिति पाता है, जो ग्रन्थि-भेद के लगभग सन्निकट होती है। अंतिम यथाप्रवृत्तिकरण के बाद निश्चित रूप से अपूर्वकरण की स्थिति प्राप्त होती है। यह अपूर्वकरण इसलिए है कि आंतरिक शुद्धता की दृष्टि से यह अपने आप में सर्वथा नवीनतम रूप में होता है, क्योंकि वैसी आंतरिक शुद्धि उसे पहले कभी भी प्राप्त नहीं हुई। अपूर्व शब्द इसी भाव का द्योतक है।
मित्रादृष्टि में आत्म-गुणों में एक संस्फूर्ति की दशा उत्पन्न होती है। अंतर विकास की दिशा में यह पहला उद्वेलन है। यद्यपि वहाँ प्रथम गुणस्थान की स्थिति होती है, दृष्टि सम्यक् नहीं हो पाती, किंतु | आत्म-जागरण की यात्रा का यहाँ से शुभारंभ होता है।
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२. तारादृष्टि
मित्रा आदि दृष्टियाँ क्रमश: बोध-ज्योति की उत्तरोत्तर स्पष्ट होती हुई स्थितियों के साथ जुड़ी हुई हैं। मित्रादृष्टि में बोध-ज्योति के उद्भास का शुभारंभ होता है। तारादृष्टि में बोध-ज्योति मित्रादृष्टि की अपेक्षा कुछ स्पष्ट होती है।
योग का दूसरा अंग नियम इस दष्टि में फलित होता है। जो प्रवृत्तियाँ आत्मा के लिए हितप्रद हैं, उनमें अनुद्वेग होता है, अर्थात् उद्वेग का अभाव रहता है। उद्वेग का तात्पर्य उद्विग्नता या आकुलता है। मन में जब तक आकुलता बनी रहती है, अंतर-बोधात्मक संस्फुरण अभिव्यक्त नहीं होता। ___इस दृष्टि में अंतर-बोध के प्रति उत्साह-भाव समुत्थित होता है और तत्त्वोन्मुखी जिज्ञासा प्रादुर्भूत होती है। समीक्षा
पातंजल योग सूत्र में वर्णित योग के आठ अंगों में पहले अंग यम के पश्चात् नियम आता है। यम, संयम का बोधक है। नीयते अनेन इति नियम:'- के अनुसार जिसके द्वारा ले जाया जाय, सही
२. योगदृष्टि सुमुच्चय, श्लोक ३८-४०.
१. योगदृष्टि सुमुच्चय, श्लोक-३१-३४. ३. योगदृष्टि सुमुच्चय, श्लोक-४१.
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