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जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना
ग-बीजों में
जनका चित्त धे ही होते है। उनके आगे बढ़ने
बीज-श्रुति का फल
योग-बीजों का श्रवण करने पर जो भावों में उल्लास तथा श्रद्धा में उत्कर्ष उत्पन्न होता है, उससे तद विषयक मान्यता स्थिरता प्राप्त करती है, उसका भी योग-बीजों में समावेश है। योग-बीजों के प्रति मन में जितना शुद्ध, उन्नत, उपादेय भाव जागरित होता है, वह भी योग-बीजों में ही परिगणित किया गया है। जिन साधकों का भाव-मल या भावात्मक मालिन्य अत्यंत क्षीण हो जाता है, उनमें योग-बीज उत्पन्न होते हैं। जिनकी आंतरिक चेतना अजागरित- सुषुप्त होती है, उनमें योग-बीज निष्पन्न नहीं होते।
सम्यक् दान स्त्र-श्रवण, आदि भी
भाव-मल का क्षय और उसके लक्षण
जीव जब अंतिम पुद्गल-परावर्त में होता है, तब उसका भाव-मल क्षीण होता है। वैसा होने पर उसमें कुछ विशेष लक्षण प्रगट होते हैं। वैसे व्यक्तियों में दु:खित प्राणियों के प्रति अत्यंत करुणा, गणाधिक पुरुषों के प्रति द्वेष, ईर्ष्या या मत्सर का अभाव तथा सभी प्राणियों के प्रति जहाँ-जैसा व्यवहार करना समुचित हो, वहाँ-वैसा करने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। ऐसे व्यक्ति में भद्रता और सौम्यता का प्रादुर्भाव हो जाता है, उसके 'अवंचकोदय' निष्पन्न हो जाता है, जिसके कारण उसको जीवन में शुद्ध, शुभ निमित्तों का संयोग प्राप्त होता रहता है। अवंचक के तीन भेद
शास्त्रों में तीन प्रकार के अवंचक बताए गए हैं, जो योगावंचक, क्रियावंचक तथा फलावंचक कहे जाते हैं।
का ध्यान संसार में वि उत्पन्न 'अपनाना
[ अभ्यास
है, वह
तान देना न, मनन, ज्ञान की सुक्षु जन
| अवंचक का प्रयोग यहाँ एक विशेष अर्थ में हैं। जो वंचना या प्रवंचना न करे अर्थात् काम करने में कभी न चूके, विपरीत न जाए , बाण की तरह सीधा अपने निशाने तक, लक्ष्य तक पहुँचे, उसे अवंचक कहा जाता है।
सच्चे गुरुजनों का योग प्राप्त होना, उनका सानिध्य या सत्संग मिलना योगावंचक है। अर्थात् यह ऐसा योग अथवा सुयोग है, जिसका फल निश्चय ही उत्तम होता है। यह ऐसा योग नहीं है, जो वंचना करे या व्यर्थ जाए।
। गुरुजनों को वंदन करना, प्रणमन करना, उनकी सेवा करना, सत्कार, सन्मान करना आदि उत्तम | क्रियाएँ क्रियावंचक के अंतर्गत आती हैं।
१. योगदृष्टि सुमुच्चय, श्लोक-२९,३०.
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