SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 413
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णमो सिद्धाणं पद समीक्षात्मक परिशीलन - भावयोगियों और सत्पुरुषों की शुद्ध चित्त और भावपूर्वक विधिवत् सेवा करना भी योग बीजों में सम्मिलित है । " वास्तव में उन महान् आचार्यों का भी बड़ा महत्त्व है, जो भाव-योगी होते हैं तथा जिनका चित अध्यात्म - योग की साधना में लगा रहता है, वे भी जिनेश्वर देव के एक प्रकार से प्रतिनिधि ही होते हैं। योगाभ्यासी ऐसे महापुरूषों की शुद्ध मन, भावना और विधिपूर्वक सेवा करें, यह वांछित है। उनके पवित्र योगनिष्ठ जीवन से उसे प्रेरणा मिलती है । उनकी शिक्षाओं से उसे अपनी साधना में आगे बढ़ने का संवल प्राप्त होता है। स्वभावतः भव-संसार के प्रति उद्वेग, वैराग्य, सत्पात्र को निर्दोष आहारादि पदार्थों का सम्यक् दान तथा सिद्धांतों या शास्त्रों का लेखन, शास्त्रों का आदर योग्य पात्र को शास्त्रदान, शास्त्र श्रवण, वाचन, सम्मान, आत्मार्थी जिज्ञासु जनों में शास्त्रों का प्रसार, स्वाध्याय, चिंतन, मनन आदि भी योग-बीज में सम्मिलित हैं । विमर्श ग्रंथकार ने योगभावात्मक निष्पत्ति के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण बातों की ओर साधकों का ध्यान आकृष्ट किया है। उनमें पहली बात भवोद्वेग या संसार से वैराग्य है। जब तक मनुष्य को संसार में सुखानुभूति होती है, तब तक उसका चित्त योग में नहीं जाता। इसलिए मन में वैराग्य भाव उत्पन्न हो, यह वांछनीय है । सांसारिक द्रव्यों के प्रति मोह मिटे, उसके लिए उदारतापूर्वक दान-वृत्ति अपनाना आवश्यक है। अतः योग्य पात्रों को दान देना चाहिए। इनके पश्चात् ग्रंथकार ने शास्त्र - लेखन की बात कही है। साधक को शास्त्रों के लेखन का अभ्यास करना चाहिए, क्योंकि लेखन में ध्यान एकाग्र होता है। जिस विषय का कोई लेखन करता है, वह विषय सरलता से उसकी समझ में आता है । लेखन के साथ - साथ लिखित शास्त्र का सम्मान करना चाहिए। सत्पात्रों को शास्त्र - ज्ञान देना चाहिए। विशिष्ट ज्ञानी जनों से शास्त्रों का श्रवण करना चाहिए। स्वयं भी उनका वाचन, पठन, मनन, चिंतन, पर्य्यालोचन करना चाहिए। उन्हें जन-जन तक प्रसारित करना चाहिए। इससे ज्ञान की प्रभावना होती है । सद् ज्ञान का व्यापक रूप में प्रसार होता है, जिससे जिज्ञासु एवं मुमुक्षु जन लाभान्वित होते हैं । १. योगदृष्टि समुच्चय श्लोक-२६. २. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक - २७, २८. 376
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy